Monday, September 30, 1996

गुलाब

वह नन्हा अमरीकन बना था हमारे लिए शो-पीस
उसे दिखाने के लिए ला रहे थे एक-दूसरे को खींच-खींच।

वह भोला अज्ञान नहीं जानता था, यह उसके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है,
वह उस धरती पर खड़ा है, जिसके नाम को उसके नाम से कभी नहीं हटना है,
वह धरती जिसे उसके पूर्वजों ने बसाया है,
न जाने सुकर्म से या कुकर्म से उसने इसे गँवाया है।

अभी तो उसकी वाणी प्रस्फुटित नहीं हो रही थी,
पर उसकी हरकतें संकेतों में मुझसे कह रही थीं,
वह डर रहा था काले भारतीयों से,
उसे अपनापन मिला था सफ़ेदपोश विज्ञान-रथियों से।

मैं नहीं जानती कि कल उसे भारतीय होने की शर्म होगी या नहीं,
पर मानती हूँ कि भारतीयता की भावना उसमें रहेगी नहीं,
आज वह भाषा की दीवारों से मुक्त है, पर कल वह हिन्दी नहीं जानेगा,
जहाँ उसके पिता की प्रतिभा उपेक्षित हुई उसे वह मातृभूमि नहीं मानेगा।
आज उसे अपनी मिट्टी का अन्न मिला है, कल को वह उसे याद नहीं रहेगा,
उसकी भावनाएँ यह समझने में असमर्थ हैं कि देश से दूर मिट्टी में वह स्वाद नहीं रहेगा।
कोई अचरज नहीं उसे 'माँ' का अर्थ 'मम्मी' बताया जाएगा,
'माँ' सा पवित्र और अपना शब्द उसे नहीं भाएगा।
और अपनी जड़ों से दूर वह गुलाब 'चाइनारोज' बन जाएगा,
रंग-रूप पा जाएगा, पर भारतीयता की सुगंध नहीं ला पाएगा।
एक पत्ती की कद्र न होने से एक गुलाब देश से दूर हो जाएगा,
यह किसी एक की कहानी नहीं, ऐसा रहा तो कोई नहीं बच पाएगा।
और एक दिन हर एक भारतीय इंगलिश या अमरीकन कहलाएगा।

Monday, September 23, 1996

अंतरिक्ष में मानव

इस विषय पर सोचते हुए अचानक याद आया,
कभी किसी कवि ने क्या खूब था गाया।

उन्होंने कामना की थी,
'चढ़ जाएँ धरा से सूर्य किरण पर राग-रथी'

और आज का मानव करने जा रहा है वह आकांक्षा पूरी,
किरणों को तो पा चुका, सूर्य से भी नहीं है ज़्यादा दूरी।
कौन मानेगा, यह मानव कभी था इस धरती से अंजान,
अब तो अंतरिक्ष भी बन गया उसके लिए पिकनिक का स्थान।

अपनी हर दिन बढ़ती प्रगति से वह खुश हो रहा है,
बेख़बर कि इन कलापों से कोई रुष्ट हो रहा है,
वह जिसने बनाई सृष्टि,
जी हाँ! वह है हमारी प्रकृति।

अरे ओ अंतरिक्ष में जाते मानव!
सूर्य की ओर क़दम बढ़ाते मानव!
भूलना नहीं सूर्य-ताप से तू नष्ट भी हो सकता है,
अंतरिक्ष की ख़ातिर धरती को भूलने का तुझे कष्ट भी हो सकता है।
अंतरिक्ष का खिलाड़ी बनने वालों! तुम शायद चैन से जियोगे-मरोगे,
पर भावी पीढ़ी की भी सोचो, उसे तुम क्या दे सकोगे?

वायु-जलहीन अंतरिक्ष में घर?
घुटता-सा जीवन कष्टों में घिरकर?

आज अंतरिक्ष तुम्हें खिलौना भले लगे, पर कल ये तुम्हें खिलवा सकता है,
भूलो मत! प्रकृति का अंग है, छेड़ोगे तो दंड दिलवा सकता है।
मैं यह नहीं कहती कि अपनी प्रगति रोको,
पर अंतरिक्ष के पहले धरती के भूखों को देखो।

क्या दोगे तुम उन्हें अंतरिक्ष अभियानों से?
पृथ्वी पर घर-विहीनों को अंतरिक्ष के मकानों?

जिस दिन तुममें ताकत आ जाए, नई ओजोन बना सको,
उस दिन अंतरिक्ष का रुख करना, भयमुक्त हो इसे मिटा सको।

जिस दिन यह निश्चित कर लो, मानव अंतरिक्ष को बाँटेगा नहीं,
वहाँ जाकर पृथ्वी के समान अपनों को काटेगा नहीं,
उस दिन वहाँ जाना और गर्व से पुकारना, "देवता और दानव!
मानव का नहीं कुछ बिगाड़ सकते तुम क्योंकि अब है अंतरिक्ष में मानव।"

Saturday, September 21, 1996

कहाँ गया देवत्व हमारा

पापों में डूबी धरती को फिर ज़रूरत है वाराह अवतार की,
मानवता के शत्रुओं के लिए ज़रूरत है तांडव-युक्त हुंकार की,
फिर धरती चाहती है अपनी संतानों के लिए महासंबोधि,
फिर आज ज़रूरत है इस ज्ञान से मानव धर्म प्रसार की।

ज़रूरत है एक बुद्ध की जो मानवता का घूँट पिला सके,
और बलशाली राम चाहिए, सैकड़ों रावणों को हिला सके,
शासक-शासित को कर्तव्यों के बोध के लिए
चाहिए एक और चाणक्य जो जीवन राह बता सके।

चाहिए कृष्ण एक और ताकि पांडव विजयश्री पा सकें,
और चाहिए एक विश्वामित्र धरती पर स्वर्ग बना सके,
कोमलता को कायरता में परिणत करने वालों को
बनना होगा दुर्वासा, क्रोध की चिंगारी को आग बना सके।

चाहिए हमें एक और भरत, सिंह के दाँत गिना सके,
और चाहिए एक मौर्य जो सेल्यूकस को हरा सके,
सारे विश्व में घूम-घूम, लेकर ज्ञान मशाल
विवेकानंद चाहिए विश्व-विजयी कहला सके।

थे सब भारतवर्ष की थाती और अलौकिक गुण था पाया,
देवताओं का अंश है हममें यह सिद्ध कर के था दिखलाया,
कहाँ गया देवत्व हमारा? दानवों ने लेकर सहारा,
हमारी दानवी प्रकृति का, हमें अपनी राह से भटकाया।

हो चुके हैं इस धरती पर अत्याचारी नंद अनेकों,
पर हमने तो उन सबका सामना कर के दिखलाया,
कहाँ आज का है चन्द्रगुप्त, भारतीयों खोजो-देखो,
एक समय में इसी भूल से हमने अपना देश गँवाया।

नहीं मिलेगा कोई तुम्हें यहाँ अलौकिक शक्ति वाला,
बनना होगा तुमको ही मानवता का रखवाला।
कोई फ़ायदा है नहीं, डूब चुका है देश गर्त में
कहकर हमने अपनी इस ज़रूरत को खुद ही टाला।

क्यों नहीं बन सकते हैं हम राम, कृष्ण या बुद्ध महान्?
मानव के लिए कुछ भी नहीं असंभव, फिर क्या हैं हम इतने अज्ञान?

Thursday, September 19, 1996

सभ्यता का चरमोत्कर्ष

मंद-मंद हलकी-हलकी बहती हवा
ने कानों में आकर मुझसे कहा,
"चल मैं ले चलूँ तुझको,
तू जाना चाहती है जहाँ।"

मैंने कहा,"ऐ हवा!
तू तो घूमती यहाँ-वहाँ,
बता कोई ऐसी जगह,
शांति पा सकूँ मैं जहाँ।"

गम्भीर होकर उसने कहा,
"प्रगति की अंधी दौड़ है जहाँ,
भला उस भावना-शून्य दुनिया में,
शांति मिलेगी तुझे कहाँ?"

हताश होती हुई मैं बोली,
"क्या तुझे ऐसी जगह न मिली?
भले वह इस पृथ्वी से बाहर हो,
पर खिलती हो जहाँ शांति की कली।"

जवाब मिला, "ऐ नादान!
क्या सचमुच तू है अनजान?
चाँद पर भी मानव का कब्ज़ा है अब,
छोटा-सा मसला है अब यह जहान।"

"निकट भविष्य में चाँद में
तरलाई न होगी, न मन में
आएगी शांति की बात।
कोई मज़ा ना होगा जीवन में।"

"तब सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर पहुँच
होगी तू भी दासी विज्ञान की
रक्षा के कवचों में घिरकर भूल जाएगी,
बात तू भी प्रकृति के गुनगान की।"

Tuesday, September 17, 1996

काग़ज़ की जीवन कहानी

बाँस की पेड़ जिसमें, छिपा है भविष्य के काग़ज़ का टुकड़ा,
दिखते हैं कुछ मज़दूर और नज़र आता है एक मालिक-सा मुखड़ा।
फिर दनादन चलती है कुल्ड़ियाँ,
कुचली चली जाती हैं पास की झाड़ियाँ।
फिर वे बाँस ले लेते हैं लुग्दी का रूप,
हरे-हरे से प्यारे बाँस लगने लगते हैं ब़ड़े कुरूप।
फिर बन जाता है वो काग़ज़,
लेकर थोड़ा-सा श्रम, थोड़ी-सी लागत।
फिर वह एक मोटी-सी कॉपी का भाग बन जाता है,
एक बड़ी ऑर्केस्ट्रा का छोटा-सा साज बन जाता है।

फिर दुकान के एक कोने में उसपर धूल जम रही थी,
यदि उसमें प्राण मानें तो उसकी साँस घुट रही थी।

फिर एक दिन एक विद्यार्थी ने उसकी उपयोग किया,
कुछ लिखकर, कुछ काटकर, कुछ करने में प्रयोग किया।

फिर एक दिन रह गया वह एक रद्दी काग़ज़,
कूड़ेदान में होने भर की रह गई उसकी हैसियत।

पर क़िस्मत से उसे एक दुकानदार ने ले लिया,
एक बच्चे के खरीदने पर कुछ बिस्किट उसमें दे दिया।

बच्चे से छूटने पर कर्मचारी के झाड़ू का हो शिकार,
चल दिया म्यूनिसिपल्टी की गाड़ी में होकर सवार।

कहीं किसी गढ्ढे में सड़कर खाद बन गया,
जिसे किसी माली ने अपने बाँस के पेड़ में डाल दिया,
और फिर खत्म हो गई उसकी जीवन कहानी,
बाँस के उस पेड़ के रूप में रह गई उसकी निशानी।

उसे किसी माली ने पोसा,
उसे किसी फैक्ट्री ने खोजा,
किसी विद्यार्थी ने उसे पूजा।
जाने किसी नादान को क्या सूझा?
उसे बना डाला कूड़ा,
हो गया उसकी जीवन पूरा।

किस्मत ने जीवन के कितने रंग दिखाए,
सहता गया वह काग़ज़ चुपचाप,
जिसने उसे जीवन झेलने की
शक्ति दे दी अपने आप।

Friday, September 13, 1996

अतीत, हक़ीकत और स्वप्न

एक हक़ीकत क्षण में अतीत हो जाएगी,
उसे वापस लाने की बात आशातीत हो जाएगी,
एक सपना क्षण भर में शायद सच हो जाएगा,
'कभी वह सपना था' - यह भाव कहीं नहीं बच पाएगा।

और फिर एक दिन ऐसा आएगा,
जब स्वप्न और अतीत की भूल-
भुलैया में, मानव विलीन हो जाएगा,
इन सबका अंत हो जाएगा।

फिर नए सपने होंगे, फिर नई हक़ीकत,
विधाता रचेगा फिर से, कुछ नई-नई सी क़िस्मत,
उनके नए सपने मानव को अतीत की ओर झुकाएँगे,
और वे हक़ीकत के लिए अतीत को खोज लाएँगे।

फिर जोड़े जाएँगे वे घड़े,
जिन्हें तोड़ा था किसी बड़े,
आदमी के निर्मम हाथों ने,
नहीं जुड़ने दिया गरीबी के आघातों ने,

फिर सूतों और रेशम के अवशेषों से
पता लगेगा सामाजिक विषमता का।
और अतीत के विकृत समाज की दुहाई देकर,
वो नारा लगाएँगे समता को।

फिर एक दिन अतीत खोजने वाले अतीत बन जाएँगे,
फिर कुछ नए सपनों के सौदागर,
बनाएँगे सपनें के सुंदर घर।
और अपने अतीत को ढूँढ़ लाएँगे।

स्वप्न और अतीत की यह कहानी युगों-युगों तक चलती रहेगी
कहानी हक़ीकत की बनती रहेगी, बिगड़ती रहेगी,
अतीत और स्वप्न आते-जाते रहेंगे,
स्वप्न-द्रष्टा अतीत बन जाते रहेंगे।
लोग आते रहेंगे, लोग जाते रहेंगे।

Monday, September 02, 1996

तुम इंसान हो

क्यों मानते हो अपना देश एक छोटी सी धरती,
क्यों नहीं चाहते वह भूमि जो कोटि-कोटि के दामन भरती,
क्या मिलेगा तुम्हें इस स्वर्ग को उजाड़कर,
जगत्-गुरु होने का गौरव नकार कर?
कब मिल सकेगा तुम्हें उन शहीदों-सा मान,
जिन्होंने तुमसे ही उलझते हुए दे दिए अपने प्राण?
वे शायद आभारी हैं तुम्हारे कि तुमने उन्हें मान दिया,
पर, आख़िर क्या चाहते हो जो हर बहन को रुलाने का काम है ठान लिया?
ज़रा सोचो उस बेचारी बहन की कथा,
जो राखी के दिन मना रही है भाई के मौत की व्यथा।
ज़रा सोचो उस स्त्री का करुण कहानी,
जिसे एक वर्ष में हटानी पड़ी है सुहाग की निशानी,
जो ससुराल के लिहाज से रो भी नहीं पा रही,
उसकी आह महसूस करो जो तिल-तिल कर है कराह रही।
सोचो उस माँ के बारे में जिसके आगे बच्चे की लाश पड़ी है,
अविश्वस्त-सी जिसकी आखें उस लाश पर ही गड़ी हैं।
उस पिता के हृदय की सोचो, जिसके पास बेटे की चिता सजी है,
कितना बदनसीब है वह कि उसके रहते बेटे को आग पड़ी है।
कौन है इस स्थिति का आधार?
कौन है इसका ज़िम्मेवार?
कभी तरस, तो कभी हँसी आती है तुम्हारे विचार पर,
कौन-सा गौरव चाहते हो इस गौरवमयी धरती को त्याग कर?

ऐ इन्सान, कहाँ खो गई तेरी इन्सानियत?
आदमी! किस ताक पर रख छोड़ी तूने आदमीयत?

क्यों मिटाना चाहते हो यहाँ से मोहब्बत का निशाँ,
कभी प्रेम से बोलो तो देखो कैसा बँधता है शमाँ।

इस धरती को स्वीकारो,
यों भाइयों को मत मारो,
देखो तो कितना कुछ है यहाँ तुम्हारे लिए,
'मेरा' छोड़ कहना सीखों 'हमारे' लिए।
फेंक दो यह घिनौना मवाद,
जिसे कहते हैं हम आतंकवाद,
इसके कारण अब ना किसी की माँग का सिन्दूर मिटे,
ना ही अब किसी बहन के हाथ से राखी छूटे।

लेकिन मेरी कलम कल्पना-लोक में जा रही है,
क्योंकि तुम्हारी आत्मा मेरी पुकार नहीं पा रही है,
या तुम एक सच्चाई से मुँह मोड़ना चाहते हो,
बेवज़ह अपना अद्भुत घर ख़ुद ही तोड़ना चाहते हो?
अपनों की आवाज़ की अवहेलना तो पशु भी नहीं करता,
तो क्या तुम्हें इन्सान की पुकार में अपनापन नहीं मिलता?

सोचो कि तब तुम एक पशु भी नहीं रह गए,
क्योंकि तुम्हारे जीवन-मूल्य नफ़रत की धारा में बह गए।
क्या कंधे पर बंदूकों के साथ तुम्हें अपना अस्तित्व नज़र आता है?
क्या अपने चेहरे पर इंसानी व्यक्तित्व नज़र आता है?

यदि हाँ, तो तुम्हारे दिल का आईना झूठा है,
क्योंकि हर सही इंसान विश्व का तुमसे रूठा है।

अब तुम ही सोचो नफ़रत ने तुम्हें क्या बना दिया है?
कि तुम इंसान हो, यह तक तुमने भुला दिया है।