Thursday, February 27, 1997

पिछली गलियाँ

कल तक जो गलियाँ पहचानी थीं,
आज उनके लिए मेहमान हूँ मैं।
क्या पता आज जो मेरे अपने हैं,
कल उनके लिए अनजान रहूँ मैं।

आगे भागती ज़िन्दग़ी की राहों में कभी
जब पिछली गलियों में चलने का मौका मिलता है,
कहीं, किसी कोने में मन के सोया हुआ
अतीत का रंग-बिरंगा फूल तब खिलता है।

किसी जानी-पहचानी चौखट की ओर
बढ़ते हुए रुक जाते हैं क़दम।
मेरी जगह उनके दिलों में किसी और ने ले ली होगी
सोचकर यह सिहर जाता है बदन।

आँखों को नज़र आता है
कुछ साथियों का बदला रूप।
खिलखिलाते सामने से गुज़र जाते हैं
देकर मुझे अतीत से एक कतरा धूप।

पहचान नहीं पाते वे मुझको,
भावनाएँ पहुँचती नहीं उनतक।
दोष उनका भी नहीं है,
मैं भी तो बदल चुकी हूँ अबतक।

गलियों के भाग जहाँ काँटे बिछे थे,
उनपर चलकर ही गलियाँ पार की थीं मैंने।
काँटों के साथ घावों के निशान भी मिट चुके थे,
जिनकी टीस कभी झेली थी मैंने।

ध्यान आता है तभी कि अब
इन गलियों में लौटकर क्या फ़ायदा?
सीधी सड़क पर ही आगे चलूँ तो
शायद अच्छा रहेगा ज़्यादा।

काफ़ी है कि याद कर लिया मैंने
बीते हुए समय को।
वे यादें, भय के वक़्त मुझको
बनाएँगी अभय जो।

Sunday, February 23, 1997

रुकना सीख लो

हर वक़्त अपने दिल की सोचने वालों,
कभी दूसरों के भी दिल में झाँको।
स्वार्थ सदा ही ख़ुद का देखने वालों,
सोचो कामनाएँ औरों की भी हैं लाखों।

हर क़दम उठाने से पहले सोचो,
उसके नीचे कुचले जाने वालों में तुम होते तो!
मौत का प्रसाद बाँटने से पहले सोचो,
उनकी जगह मौत की नींद तुम जो सोते तो!

दूसरों पर हँसने से पहले जान लो,
तुम भी कोई अंतर्यामी नहीं हो।
भूल कल को तुमसे भी होगी
हर चीज़ के तुम भी ज्ञानी नहीं हो।

कुछ कहने-मानने से पहले ये भी सोचो,
सामने कोई तुमसे कमज़ोर नहीं है।
आज सच हो, तो कल झूठ हो जाओगे,
क़िस्मत के फेर पर किसी का ज़ोर नहीं है।

कितनी उम्र काट ली है तुमने,
जो ज़िन्दग़ी से जीत जाओगे?
हार मानना भी सीख लो तुम,
तभी कल जीत के गीत गाओगे।

हारो नहीं ज़िन्दग़ी से पर,
कभी-कभी झुकना सीख लो।
अवरुद्ध न करो राहें ज़िन्दग़ी की
पर असहायों के लिए रुकना सीख लो।

Wednesday, February 19, 1997

ज़िन्दगी! नहीं मानूँगी भार तुझे

ज़िन्दगी! नहीं मानूँगी भार तुझे
अब नहीं मानूँगी हार तुझसे।

कब तक ढोती जाऊँगी तुझे
ग़म और अंधकार को यथार्थ बनाकर?
कब तक मानूँगी तुझे वो दरिया
जहाँ सुख की किश्ती डूबी मझधार में आकर?


ऐ ज़िन्दगी की पूर्णिमा! सुन ज़रा,
कब तक तू दूर भागेगी मुझसे?
तू रूठ जाए तो रूठ, पर तुझे मान कल्पित
कभी भी मैं नहीं रूठूँगी तुझसे।

कर्म करने को आई हूँ मैं,
हमेशा ग़म ढोने को नहीं!
कुछ कर गुज़रने को जन्मी हूँ मैं
ज़िन्दगी! तुझसे पराजित होने को नहीं।

नहीं कहती कि दुःख आएँगे नहीं,
दावा नहीं करती कि मैं रोऊँगी नहीं।
नहीं मानती कि सुख सारे मिल जाएँगे मुझे
पर ज़िन्दगी! तुझे मैं खोऊँगी नहीं।

तमाशा कहा है तुझे लोगों ने,
तमाशा समझ कर ही जिऊँगी मैं।
दुःख तो आएँगे ही पर आज या कल
सुख! तेरा भी रस पिऊँगी मैं।

न भी पी पाऊँ तो असफलों
की गिनती में नहीं आऊँगी मैं।
उदाहरण दूसरों का लेकर
खुद एक उदाहरण बन जाऊँगी मैं।

Sunday, February 16, 1997

इन पलकों के भीतर

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही भूली-बिसरी यादें
प्रत्यक्ष-सी कुछ कड़वी-मीठी बातें।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही छूटे हुए साथी
यादें उनकी दर्शन उनके कराती।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही हो चुके पापों के प्रमाण,
वे चेहरे जो निकले नहीं सरेआम।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही पुण्यात्माओं की तस्वीरें
जय-जयकार जिनकी नहीं कर पाती धीरे।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अतीत में देखे गए कितने ही स्वप्न,
जिनका बाहर की दुनिया में हो चुका अस्तित्व खत्म।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
आकांक्षाएँ वैसी कितनी ही
कुछ जो पूरी हुईं, कुछ रह गईं।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
आज की दुनिया के कितने ही चित्र
भविष्य की राह पर जो बन जाएँगे मित्र।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अच्छे-मीठे कितने ही स्वप्न
जो सँजोए हैं ताकि हो न खत्म।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही सोची हुई इच्छाएँ
जो शायद भविष्य में पूरी हो जाएँ।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही आँसू रखे हैं,
जिन्हें रोका है और अब तक नहीं बहे हैं।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी हृदय-विदारक बातों की तस्वीर,
कितनी ख़ूबसूरत चीज़ें जो लगती हैं हीर।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
उस स्वार्थ से चेहरे पर भरी ग्लानि
जिससे अक्सर दूसरों की हुई हानि।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
दूसरों पर आए गुस्से की लाली
जिन्हें मन-ही-मन देकर रह गई गाली।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही फूटती आशा की किरणें
संग उत्साह के जो बढ़ी मंज़िल से मिलने।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने आँसू जिनका कारण होगी खुशी,
और जो अभी तक निकलने हैं बाकी।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अच्छे-बुरे कितने ही दृश्य
सुकर्म-कुकर्म के कितने ही कृत्य।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
शायद सारा का सारा जीवन
जहाँ तक की दूरी माप सकता मेरा मन।

Monday, February 03, 1997

शोषित

शोषित! तू हमेशा, हर युग में शोषित ही रहा है,
किसी-न-किसी रूप में शोषण-योग्य घोषित ही रहा है।
जब तक तेरा मालिक कोई इन्सान न था,
तेरा शोषण इस प्रकृति ने किया।
शासक और शासित में बँट गई जब सभ्यता,
तेरा शोषण शासकों की सृष्टि ने किया।
किसान बनकर शोषित ही रहा तू
सामंतों ने था तुझे सर्फ बनाया,
पूँजीपतियों ने घोषित किया सर्वहारा,
तेरे उद्धार को फिर साम्यवाद था आया।

हर युग में तूने कोई संघर्ष किया है,
शोषण का ही किंतु फिर गरल पिया है।

सभ्यता का सूर्य उगा जो पश्चिम में
उलटा उगकर उसने उलटा ही काम किया था,
दास बनकर ठूँसा गया जहाजों में
तू ही था जो बेड़ियों में बँध के जिया था।

सभ्यता का भवन बन चुका है जो आज
तू ही है जो उसकी हर नींव बना है,
पर नींव की तरह ही मिट्टी के नीचे तू
सड़ता हुआ घुट-घुट कर आज भी पड़ा है।