मानव सभ्य हो चुका है
मानव गुफाओं में रहता था, बिना भेदभाव के,
छल-प्रपंच से दूर, हृदय पर बिना बने किसी घाव के,
क्योंकि वह मानव असभ्य था,
सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।
मानव प्रकृति से डरता था,
इसी के लिए जीता-मरता था,
क्योंकि वह मानव असभ्य था,
सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।
मानव कुछ पाने हेतु मेहनत करता था,
खुशियों में हँसता, दु:ख में आहें भरता था,
क्योंकि वह मानव असभ्य था,
सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।
मानव के पास कुछ सोचने को, देखने को समय था
संतोष उसका श्रृंगार, हथियार उसका विनय था,
क्योंकि वह मानव असभ्य था,
सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।
मानव ने सबसे बड़ी क्रांति मचाई थी,
अपने लिए, दुनिया के लिए आग पाई थी,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने समाज को वर्गों में बाँट दिया था,
कुछ मे पशु, कुछ मे सुर-तुल्य स्थान प्राप्त किया था,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने अपने को क्षेत्रों में समेट लिया,
सुरक्षा के लिए भाषा का कवच लपेट लिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने युद्ध की कला को जान लिया था,
तभी तो खुद को सर्वशक्तिमान मान लिया था,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
उसने बिजली के कड़कने और बादल के गरजने का रहस्य समझ लिया,
तभी तो वह ईश्वर को चुनौती देने में उलझ गया।
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव अब लिखना, पढ़ना, बोलना जान चुका था,
उनका प्रयोग कर चोट करना अपना कर्तव्य मान चुका था,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने पहिए को खोज जीवन-बारिश का महेन्द्र मान लिया,
उसकी-सी ही यांत्रिकता को सफल जीवन का केन्द्र मान लिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव वायुयान का कर आविष्कार, कल्पनानुसार, पंखों से युक्त हो चुका था,
अपनी जननी, अपनी माटी, अपनी ही धरती से मुक्त हो चुका था,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने उपनिवेशों को विकास का प्रतीक मान लिया,
शोषण की अधिकाधिक क्षमता को बल का परिचय सटीक जान लिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने लहु के बहने को क्रांति की शुरुआत मान लिया,
सत्य, अहिंसा और विनय को बल पर आघात मान लिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने खुद को धर्मों की किस्मों में बाँट लिया,
विकास के मान पर अपने ही भाइयों को काट दिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने प्रकृति को अपना दुश्मन करार दिया,
उससे छीन कर विज्ञान को हर एक अधिकार दिया,
क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
और विकास के बीज बो रहा था।
मानव ने मानव मूल्यों को भुला दिया है,
कृत्रिमता के जोश में भावनाओं को सुला दिया है,
क्योंकि मानव सभ्य हो चुका है।
मानव सभ्य हो चुका है।