Tuesday, April 30, 1996

मानव सभ्य हो चुका है

मानव गुफाओं में रहता था, बिना भेदभाव के,
छल-प्रपंच से दूर, हृदय पर बिना बने किसी घाव के,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव प्रकृति से डरता था,
इसी के लिए जीता-मरता था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव कुछ पाने हेतु मेहनत करता था,
खुशियों में हँसता, दु:ख में आहें भरता था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव के पास कुछ सोचने को, देखने को समय था
संतोष उसका श्रृंगार, हथियार उसका विनय था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव ने सबसे बड़ी क्रांति मचाई थी,
अपने लिए, दुनिया के लिए आग पाई थी,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने समाज को वर्गों में बाँट दिया था,
कुछ मे पशु, कुछ मे सुर-तुल्य स्थान प्राप्त किया था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने अपने को क्षेत्रों में समेट लिया,
सुरक्षा के लिए भाषा का कवच लपेट लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने युद्ध की कला को जान लिया था,
तभी तो खुद को सर्वशक्तिमान मान लिया था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

उसने बिजली के कड़कने और बादल के गरजने का रहस्य समझ लिया,
तभी तो वह ईश्वर को चुनौती देने में उलझ गया।
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव अब लिखना, पढ़ना, बोलना जान चुका था,
उनका प्रयोग कर चोट करना अपना कर्तव्य मान चुका था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने पहिए को खोज जीवन-बारिश का महेन्द्र मान लिया,
उसकी-सी ही यांत्रिकता को सफल जीवन का केन्द्र मान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव वायुयान का कर आविष्कार, कल्पनानुसार, पंखों से युक्त हो चुका था,
अपनी जननी, अपनी माटी, अपनी ही धरती से मुक्त हो चुका था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने उपनिवेशों को विकास का प्रतीक मान लिया,
शोषण की अधिकाधिक क्षमता को बल का परिचय सटीक जान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने लहु के बहने को क्रांति की शुरुआत मान लिया,
सत्य, अहिंसा और विनय को बल पर आघात मान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने खुद को धर्मों की किस्मों में बाँट लिया,
विकास के मान पर अपने ही भाइयों को काट दिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने प्रकृति को अपना दुश्मन करार दिया,
उससे छीन कर विज्ञान को हर एक अधिकार दिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने मानव मूल्यों को भुला दिया है,
कृत्रिमता के जोश में भावनाओं को सुला दिया है,
     क्योंकि मानव सभ्य हो चुका है।
     मानव सभ्य हो चुका है।

Friday, April 26, 1996

मेरा भारत महान् है

वह थी एक बूढ़ी असहाय सी औरत,
परिस्थितियों की मार से हो चुकी बेबस,
वह एक छोटे से क्षेत्र में घंटों से बैठी थी,
उसकी किस्मत हर तरह से उससे रूठी थी।
दो-ढाई किलो रद्दी से भरा थी उसका बोरा,
मोतियाबिंद उतरे आँखों में बंद सपने थे उसका घोड़ा,
उस पर चढ़ कर आशाओं के आकाश में सैर कर रही थी,
पर, तुरत, यथार्थ के धरातल पर उतर कर आह भर रही थी।
तब तक शायद उसे भूख लग आई थी,
किसी तरह टटोल कर बोरे से छोटी-सी थैली पाई थी,
अपने काँपते हाथों से उसे खाना निकालते देख मैं रह गई थी दंग,
उसके भोजन को निहार मेरी हृदय गति होने लगी थी मंद,
चाह कर भी मुँह नहीं फेरा क्योंकि बाजू में एक सहेली खड़ी थी,
नज़रों में उसकी दयालु होने के कारण मैंने एक नाटकीय आह भरी थी,
वह भी कम नहीं थी, उसे अपने पोस्टर की नायिका बना रही थी,
क्योंकि उस स्थान को भरने हेतु पात्र की खोज तब तक की जा रही थी।
और मेरे और आपके लिए ये व्यथापूर्ण गाथा,
जिसमें सिमटकर रह गई वह है बस ये छोटी-सी कविता।
क्या इस समस्या का यही समाधान है?
और हम चिल्लाते हैं मेरा भारत महान् है।

Tuesday, April 23, 1996

हमारी भावनाएँ

हमारी भावनाएँ
   बेकद्र-सी पड़ी हुई हैं,
   दुनिया अपनी जिद पर अड़ी हुई है।

हमारी भावनाएँ
   भला कौन उसे समझेगा,
   हमारे मन की गुत्थम-गुत्थी को कौन बूझेगा?

हमारी भावनाएँ
   क्या उनसे जुड़ा है सम्पत्ति का अधिकार,
   ऐसा निकृष्ट सोच से मन कर उठा हाहाकार।

हमारी भावनाएँ
   उन्हें कुंठित करने का काम किसने किया है,
   दब्बू व्यक्तित्व का ये बोझ लाद किसने दिया है?

हमारी भावनाएँ
   ये ही बना दी गई है कि अगले कुछ वर्षों में,
   पैसे, गहने, मेहनत के खर्चों में,
   सारे पुराने रिश्ते टूट जाएँगे,
   सुनहले सपने हमसे रूठ जाएँगे।

हमारी भावनाएँ
   ये सुन उनमें भर गया था हर्ष.
   मनाया गया था कुछ समय पहले बालिका-वर्ष.
   पर ये हर्ष अब विषाद हो चुका था,
   दु:ख, पतन अवनति की गाद हो चुका था,
   जिसमें हमारी भावनाएँ और हम फँस चुके हैं,
   क्योंकि समाज-निर्माता भेदहीन समाज रच चुके हैं।

Friday, April 19, 1996

शिकायत

इस दुनिया में सभी को सभी से शिकायत है,
शिकायतें करने की हमारी शायद बन गई आदत है,
मुझे आपसे, आपको मुझसे,
सच को झूठ से, झूठ को सच से,
शिक्षक को छात्र से, छात्र को शिक्षक से,
परीक्षक को परीक्षार्थी से, परीक्षार्थी को परीक्षक से,
आदमी को दुर्भाग्य से, दुर्भाग्य को सौभाग्य से,
पानी को आग से, उपभोक्ता को त्याज्य से,
बच्चों को बड़ों से, बड़ों को बच्चों से,
चोरों को अदालत से, नेताओं को सच्चों से,
मुलायम को लालू से, आडवाणी को राव से,
मानो खुशी को प्यार से, या दुख को घाव से,
सहेली को सहेली से, दोस्त को दोस्त से,
मानो पानी को जल से और मांस को गोश्त से,
पर दोस्तों,
जिसको शिकायत जिससे भी है,
उसका जीवन उससे ही है।
कैकेयी न होती, तो राम की महानता कहाँ,
दशरथ न होते, तो उनकी पितृभक्ति कहाँ,
लक्षमण न होते, तो भ्रातृ-प्रेम कहाँ,
और रावण न होता तो उनकी शक्ति कहाँ?

अपोज़िशन न हो, तो सरकार की महत्ता कहाँ?
जनता न हो तो उसकी सत्ता कहाँ?

अत:, छोड़ो शिकायतें हो लो साथ,
मिल जाओ सब, मिला लो हाथ,
पर यह हाथ दो-मुँहा न हो,
कुतर खाने वाला कोई चूहा न हो।

Monday, April 15, 1996

वो बस

वो बस,
   कितनों की आशाओं की पूरक थी,
   आशाएँ पूरी करने की एक मात्र सूरत थी।

वो बस,
   कितनी ही खुशियों का उल्लास थी,
   वो खुशियाँ बन चुकी एक लाश थीं।

वो बस,
   कितनी ही माओं की आस थी,
   बस पहुँचने की लगी एक प्यास थी।

वो बस,
   कितने ही सपनों का मंदिर थी,
   पर सपनों के खून की चीख सुनने में बधिर थी।

वो बस,
   कितनी ही दुल्हनों का स्वप्न थी,
   क्या पता उन्हें स्वप्नों की होने वाली मृत्यु की रस्म थी।

वो बस,
   कितने ही प्रतीक्षारत भाइयों का अरमान थी,
   जिनकी बहनें ले कर आने वाली राखियों का फरमान थीं।

वो बस,
   कितनी ही दादियों का पोते का मुँह देखने की इच्छा थी,
   इतना ही नहीं, वो बस हमें भी दे चुकी एक शिक्षा थी।

वो बस,
   कितनी ही अभिलषाओं की कब्र थी,
   शायद किसी के बच जाने की भी सब्र थी।

वो बस,
   दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी थी,
   क्योंकि आदमी के बोझ से त्रस्त हो चुकी थी।

वो बस,
   कल अपने विकृत रूप के साथ अखबार में आने वाली थी,
   परसों वो ख़बर पुरानी हो जाएगी, पर ज़रूर सोचूँगी दिल के किसी कोने में जगह खाली थी।

वो बस,
   अपने में समेटे थी कितने ही घरों की व्यथा,
   और उस व्यथा से अभिभूत हो मैंने लिखी है ये कविता।

Sunday, April 14, 1996

खुश कौन है?

दुनिया में खुश वही है,
    जो है जान कर भी अनजान,
    जो है समझ कर भी नादान,
    जो सदस्य होकर भी मेहमान।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसके लिए नहीं है कोई समाज, 
    जिसके पास रहता है एक साज, 
    जो बजाता है सिर्फ अपना राग।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसे किसी से नहीं है मतलब, 
    जिसके लिए कुछ नहीं ग़ौर तलब, 
    जिसके लिए "मैं" में सिमटा है सब।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसकी रहती हैं आँखें बंद, 
    जिसके लिए एक हैं दुनिया के रंग, 
    जिनसे कोई अलग नहीं, ना ही कोई संग।

दुनिया में खुश वही है, 
    जो शायद कुछ करता नहीं, 
    किसी के दुख में आहें भरता नहीं, 
    कभी खुशी में हँसता नहीं।

हाँ, दुनिया में खुश वही है,
जिसके लिए हर चीज सही है,
जिसे किसी से कुछ नहीं मतलब,
जिसके लिए कुछ भी नहीं ग़लत।

Wednesday, April 10, 1996

तुम क्यों मौन हो?

मानव! मैं तुम्हारे नज़दीक आना चाहती हूँ,
क्या तुम आने दोगे?
एक खुशी, एक आनंद पाना चाहती हूँ,
क्या तुम पाने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम मनुष्य हो?
जिसकी शीश हिमराज से ऊपर हो उसके तुल्य हो।

मानव! मैं तुम्हें जानना चाहती हूँ,
क्या तुम जानने दोगे?
तुममें शक्ति है यह मानना चाहती हूँ,
क्या तुम जानने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम सच्चे मनुष्य से शांत-धीर हो,
अहिंसा से जग को झुका सकने वाले वीर हो?

मानव! मैं तुमसे कुछ अच्छा सीखना चाहती हूँ,
क्या तुम सीखने दोगे?
तुम्हारे ज्ञान को अपने दिल-ओ-दिमाग पर लिखना चाहती हूँ,
क्या तुम लिखने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम्हारे पास सच्चे ज्ञान का दिया है,
नफ़रत की आग बुझाने वाले ज्ञान-जल को तुमने पिया है?

मानव! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ,
क्या तुम पूछने दोगे?
सिर्फ इतना, और मैं कुछ ना चाहती हूँ,
क्या तुम पूछने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! बताओ तुम कौन हो?
अब बोलो, बोलो तुम क्यों मौन हो?

Tuesday, April 02, 1996

आदमी क्या है?

आदमी क्या है?
एक पुतली चलती-फिरती,
या एक लहर उठती-गिरती,
या एक हाड़-माँस की मिट्टी का ढाँचा,
जिसमें बना हुआ है हृदय-रूपी एक खाँचा,
जिसमें सबके लिए भरी हुई है नफ़रत,
सैनिक नहीं भरी है मानव-बम बनने की हिम्मत।
इतनी हिम्मत है उसमें कि दे सकता है शहादत,
पर उसमें वतन नहीं, द्रोहियों के लिए है मरने की आदत?

नहीं, ये मानव हो नहीं सकता,
जो मानव के दुख में रो नहीं सकता,
मानव के अंतर का नहीं यह रूप है,
अंतर्मन सुंदर पर उसका बाह्य रूप कुरूप है।
यह रूप बनाने वाला कोई मानव नहीं दानव है,
उसके षड्यंत्र में फँस गया ये मानव है,
मनुष्य रूप में पृथ्वी पर आकर मानव को कर रहा बर्बाद,
हमारी बर्बादी का जश्न मनाकर वह हो रहा आबाद,
उसने मानव की मानवता को सुला दिया है,
मानवता को दानवता में घोल-मिला दिया है,
उस दानव को हम जानते हैं,
वह दानव है हम मानते हैं,
फिर क्यों उसके चंगुल से हम छूटना नहीं चाहते हैं,
मानते क्यों नहीं उसके और हमारे जुदा-जुदा रास्ते हैं?
अब वक़्त आ गया है उठने का,
अब नहीं समय है रुकने का,
आज मानव को मानव से मोहब्बत सिखलानी है,
आगे बढ़ने की सही राह उन्हें दिखलानी है।