Thursday, November 12, 1998

सपने और दिमाग़

"मुझे ये ज़मीं नहीं
वो आकाश चाहिए।
ये साधारण पत्थर नहीं
वो चाँद चाहिए।"

"ये आग नहीं चाहिए
मुझे सूरज को पकड़ना है।
नदी-झरनों का है क्या करना
मुझे आकाशगंगा में उतरना है।"

"ये पेड़, या फल-फूल नहीं
वे सारे तारे चाहिए।
पत्थर की मूर्ति नहीं, हैं ग़र तो
भगवान खुद ही हमारे चाहिए।"

-- मेरे सपनों ने कहा।

"मूर्ख ग़र सोचता है कि
क्षमताएँ हैं तेरे अंदर,
तो बना देता ना क्यों
धरती को ही तारों का घर।"

"आँखों से पर्दा हटा तो ज़रा तू,
चाँद भी पत्थर ही है मान जाएगा।
आकाशगंगा काल्पनिक है मानता न क्यों,
इन झरनों का आनंद कहीं और न पाएगा।"

"तारों की चमक अंधा बना सकती है,
फूलों की कोमलता का सकून और कहाँय़
ये आग जिसने पकाई थी पहली रोटी,
सूरज की प्रचंडता में है मान वो कहाँ?"

"ढूँढ़ना चाहता है भगवान को ग़र तू
झाँक अपने अंदर कुछ नहीं वो विश्वास है तेरा।
देख उनकी ओर जिनके सपने नहीं बचे,
आँखों में उनकी मिल जाएगा भगवान वो तेरा।"

-- मेरे दिमाग़ ने कहा।

Tuesday, November 10, 1998

कवि कैसे बने

जब अपने ही दिमाग़ में
बम फट रहा हो,
अपने ही सपनों का
क़त्ल हो रहा हो.
तो कश्मीर के प्रति
सहानुभूति कैसे आए?

बहुआयामिता से डरकर,
विविधताओं में उलझकर,
जब कोई अपना ही रास्ता
पाने ना पाए,
तो कवि कैसे बने वो?
दुनिया को क्या राह दिखाए?

जब अपनी ही क़िस्मत
उसे गरीब नज़र आए,
ओर भविष्य अंधकार का
दूसरा नाम वो पाए,
तो भिक्षुक और प्रतिहारिणी पर
कैसे वो दया दिखाए?

मानवता भविष्य बना नहीं पाती,
भावनाएँ रोटी दिला नहीं पाती,
इनकी हार के और निर्बलता के किस्से
हर वक़्त उसकी आँखों के आगे आएँ,
तो मानवता पर विश्वास कैसे करे वो,
कैसे वो पाए भावनाएँ?


Friday, November 06, 1998

तुम्हारे बाद

मंज़िलें हैं, रास्ते हैं,
दूरियाँ हैं, माध्यम है।
बस प्रोत्साहन नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।

रिश्ते हैं, नाते हैं,
लोग अपने बनते जाते हैं,
पर अपनत्व नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।

हवाई जहाज, रेलगाड़ियाँ हैं,
न कुछ हो तो बैसाखियाँ हैं,
एक सहारा नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।