Tuesday, February 27, 1996

पोस्टमार्टम

उनके लिए कुछ नहीं था उस फूल में सिवाय पुंकेसर, स्त्रीकेसर व कुछ कोशिकाओं के,
पर, मेरे लिए उनके अंदर छिपे थे भाव उन माताओं के,
जो अपने बच्चे से बिछड़ने पर बिलखती हैं, रोती हैं,
और उन्हीं की याद में "चैन की नींद" सोती हैं,
बड़े प्रेम से ढूँढ़ा थे मैंने उसे उस वन में,
और उस फूल के बड़े पेड़ की कल्पना सजाई थी अपने मन में,
उसे देखकर वो भी चिल्लाए, "अरे! मिल गया।"
मैं चकित थी कि आख़िर हुआ क्या।
हाथ से झपटा ऐसे कि फूल मुझे मिला टूटा हुआ,
उन्हें किन्तु दुःख न हुआ, मानो जीत गए हों कोई जुआ।
उसी फूल की ज़रूरत थी उन्हें रिसर्च करने को,
चीड़-फाड़ करने को और अपने सफ़ेद कागज़ भरने को।
अपनी इच्छा पूरी की और उसे चीड़-फाड़ दिया,
उस ख़ूबसूरत फूल का पोस्टमार्टम कर मुझे लौटा दिया।
उन्हें शायद मिल गया था, हाँ, मिल गया था, एक नया हथियार,
और बस इसलिए देखती रही मैं कर न सकी गुस्से का प्रहार।
लोग आते था और उन्हें बधाइयाँ दे कर चले जाते थे,
पर वे लोग, हाँ, विद्वान् लोग, मेरे मन की थाह नहीं ले पाते थे।
वो फूल मेरे सामने सुना रहा था अपनी व्यथा-कथा,
और उसे प्रकट कर मन हलका करने के लिए मैंने लिखी है यह कविता।

Monday, February 26, 1996

एकता

भारत में एकता नहीं थी तो हो गया वह गुलाम,
पर आज भी देखने को मिल रहा है हमें इसका एक परिणाम।

सन् सत्तावन का विद्रोह जो सबने साथ नहीं किया,
गड़बड़ भी की और एक बुरा परिणाम हमारे लिए छोड़ दिया।

यदि एकता होती तो एक ही नेता का नाम आज याद करने को मिलता,
कम-से-कम उस कारण से, इतिहास पर से हमारा विश्वास तो न हिलता।

काश!
सबने सुधार आंदोलन एक साथ किया होता,
जब उद्देश्य एक था तो एक साथ जिया होता,
मैं गलत तो नहीं कह रही न!
क्यों छोड़ गए हमारे लिए एक ओर आर्य समाज, तो ब्रह्म समाज
क्यों बसाया एक ओर रामकृष्ण मिशन, तो प्रार्थना समाज।

इसलिए हे देश के विद्यार्थियों!
इनकी गलतियों से शिक्षा लो,
आतंकवादी बनो या सुधारक,
रखना सदा मन एक,
ताकि आगे आने वाली पीढ़ी को,
उठाने न पड़ें वैसे कष्ट जो,
आज तुम उठा रहे हो,
और पूर्वजों के अवगुण गा रहे हो।

Friday, February 16, 1996

बचपन

उन्हें आती है मधुर याद बचपन की,
स्वतंत्र, उन्मुक्त, भोले-भाले, स्वच्छंद जीवन की,
पर हमारे बचपन की कहानियाँ,
बस हैं मोटी पुस्तकों की कुछ निशानियाँ।

आज के बचपन में शरारतों की फुर्सत नहीं है,
क्योंकि कभी भी बच्चों को किताबें देती रुख़्सत नहीं हैं,
नंबर पाने की लगी ऐसी होड़ है,
मानो विद्याध्यन नहीं कोई खूनी दौड़ है।

कैसे रह सकता है यह बचपन भोला-भाला,
जब उन्हें नज़र आए सिर्फ घोटाला,
यह बचपन खुशियों का पैग़ाम नहीं, तनावों की दास्तान बना हुआ है,
इस बोझ को उतारने से पहले ही यह डरा-सहमा हुआ है।

कैसे याद आ सकती हैं उन्हें नानी-दादी की कहानियाँ,
जब चारों ओर मिलें सिर्फ बमों-बन्दूकों की निशानियाँ,
पहले भी होती थीं और आज भी हैं कहानियाँ,
पर आज इनमें परोपकारियों की महानता नहीं है, अपराधों की हैं  निशानियाँ।

हमारा समाज हमें दे रहा है ये कैसा बचपन?
स्वतंत्र, स्वच्छंद नहीं, बल्कि एक डरा सहमा जीवन।