ज़िन्दग़ी और गाड़ी
बात सही ही है किसी की,
इन्सानी इस ज़िन्दग़ी की,
सही उपमा गाड़ी ही है।
चलती वो भी ज़िन्दग़ानी भी है।
अलग-अलग दौर होते ज़िन्दग़ी के,
अलग-अलग तरह की होती हैं गाड़ियाँ।
हर क़िस्म की गाड़ी चलती रहती है।
वैसे ही चलती हैं हर दौर की कहानियाँ।
बचपन यहाँ हुआ करता है
सुपर फास्ट ट्रेन की तरह,
'चिन्ता' जैसे अनारक्षित लोगों के लिए
माफ़ करना होती नहीं इसमें जगह।
चालक को कुछ सोचना रहती नहीं,
निर्देश सारे आते हैं कहीं और से।
निश्चिंत, निर्विघ्न गुज़र जाते हैं लोग
बड़ों की छाया में बचपन के दौर से।
फिर आती है बस चलाने की बारी,
भीड़-भाड़ और धूल भरी सड़क पर।
अपने विवेक से निर्णय लेने पड़ते हैं
आदमी आता है जब यौवन की दहलीज पर।
हर क्रॉसिंग पर रुकती हुई,
चलती है सवारी गाड़ी बेटिकटों को भी ढोती हुई,
कटता है बुढ़ापा यों ही झुकता हुआ,
देता अपना बलिदान सबके लिए रुकता हुआ।
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