मैं अकेली हूँ
अकेलेपन! तुझसे क्या शिक़ायत करूँ?
मैं ही तो खींच लाई हूँ तुझे।
क्योंकि मैं अकेली रहना चाहती हूँ,
गुटनिरपेक्षता मेरी
रग-रग में
समाई हुई है।
लेकिन मैं खुश हूँ
तुझे पाकर ही।
क्योंकि तू स्थायी है।
और इस स्थायित्व पर
गर्व कर सकती हूँ मैं।
तुझे साथ लिए, मज़े में
जी और मर सकती हूँ मैं।
किस बात का दुःख हो मुझे?
अकेली हूँ इसका?
पर क्या वो अकेले नहीं
जो धारा में
बहे जा रहे हैं सबके साथ?
कभी भी धारा के बीच
किसी शिलाखंड से टकरा
बेहोश हो जाएँगे।
और कुछ देर बाद
आँखें खुलने पर पाएँगे
कि कोई नहीं रुका -
तो क्या वो अकेले नहीं थे?
तो फिर क्यों ग़म हो मुझे?
मैं अकेली नज़र आती हूँ
क्योंकि मैं
उनकी तरह
किसी को पूज नहीं सकती,
ना ही किसी पर थूक सकती हूँ।
मैं राम-राज्य के सपने नहीं देखती,
ना ही उदास क्षणों में
मरने की बात करती हूँ।
क्योंकि मैं कुबेर-कोष की नहीं सोचती,
न ही सर्वस्व दान की बात करती हूँ।
क्योंकि मैं अपनी पहुँच तक पाप नहीं करती,
ना ही महात्मा होने का
ढोंग रचती हूँ।
क्योंकि मैं आवश्यकता-पूर्ति के
उद्यमों से नहीं डरती,
ना ही बिना काम के
आग पर पैर धरती हूँ।
लेकिन मैं खुश हूँ
क्योंकि मैं
उनसे ज़्यादा अकेली नहीं,
जो कभी पूजकर कभी थूकते हैं,
कभी आकाश, कभी पाताल
में होते हैं।
कभी कुबेर, कभी गुदड़ीलाल
बनते हैं।
कभी दुरात्मा, कभी महात्मा
ख़ुद को कहते हैं।
कभी शोलों पर चलने की कहते हैं,
कभी एक दिये से डरते हैं।
क्योंकि वो नहीं अपनाना चाहते तुझे
दूर भागते हैं तुझसे,
अपनी नियति से,
इसलिए नाखुश हैं,
बेचैन हैं,
उदास हैं।
पर मैं खुश हूँ
क्योंकि मैंने अपनाया है तुझे।
दबाव में नहीं - स्वेच्छा से - हँसकर।
मैं नियति को चुनौती नहीं दूँगी -
पर वो जहाँ तक बढ़ाएगी
वहाँ पहुँचने में
नहीं चूकूँगी।
हालाँकि, मैं अकेली हूँ।
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