Thursday, November 21, 1996

प्रतिबंधित

अक्सर मेरी उठी हुई कलम रुक जाती है,
पुनः उसे चलाने में मेरी शक्ति चुक जाती है।
सामाजिक बंधन रोक लेते हैं मेरी कलम को,
वे ही बंधन जो भंग करते हैं दिल के अमन को,
जिनके ख़िलाफ़ मैं हूँ लिखना चाहती,
पर ये कलम उन्हीं के डर से रुक जाती।
जब तक मैं गुमनाम थी,
समाज के लिए अनजान थी,
तब तक मेरी कलम आज़ाद थी,
लिखने में करती ना कोई विवाद थी।
और आज इसे जकड़ चुकी हैं सामाजिक मान्यताएँ,
और यह डरती है कि लिखते हुए कुछ अधिक न लिख जाए।


कलम समाज के अनुसार चलती है, पर दिमाग़ उतना ही नहीं सोचता,
कलम बँधने के लिए झुक जाती है, पर दिल को यह नहीं रुचता।
फिर दिल-दिमाग के गठजोड़ का मुक़ाबला होता है मेरे अंदर के भय से,
सामान्यतः युद्ध का निर्णय होता आया है पराजय और विजय से,
इस युद्ध का हश्र क्या होता है, ये तो मैं नहीं जानती,
पर भय हारता है, इतना तो मैं हूँ मानती,
क्योंकि जगने पर मिलता है मुझे कलम पर एक लेबल,
सारे प्रश्नों का जवाब देने में समर्थ होता है वह केवल,
'प्रतिबंधित'
क्योंकि इसी में है सभी का हित।

Thursday, November 07, 1996

मेरा नाम आदमी

मुझे याद है कि बचपन में,
धर्म और जाति की उलझन में,
मैंने माँ से पूछा था,
"माँ! बताओ मेरा धर्म है क्या?"
जाति भी मैंने पूछी थी,
पर वह मुझसे नहीं रूठी थी।
शान से सर उठाकर उसने था बताया,
"हिन्दू घर में बेटी तूने जन्म है पाया।
बेटी! तू एक ब्राह्मण घर से सम्बद्ध है,
यह समाज तुझे देवी मानने को कटिबद्ध है।"
काश! उस वक़्त बताया होता मुझे,
"मानवता का धर्म मिला है तुझे,
और भारतीयता है तेरी जाति"
काश! लिखी जाती दिल पर एक अमिट पाती।

कभी एक बुजुर्ग ने एक इन्सान था दिखाया,
और कुछ इस रूप में उससे परिचय था करवाया,
"इसने तुझसे पहले माँ की कोख से जन्म है पाया,
इसलिए ये तेरा सगा भैया कहलाया।"
काश! उन्होंने मुझे बताया होता,
कानों में प्रेम का मंत्र ये गाया होता,
"इन्सान हैं इस विशाल विश्व में जितने,
सभी के सब हैं तेरे सगे अपने।"
काश! इन्सानियत का पाठ पढ़ाया होता,
तो आज इन्सान बनकर मैंने भी दिखाया होता।

याद है मुझे कभी बचपन में,
बाँट कर खेले थे मैंने सारे खिलौने।
डाँट पड़ी थी मुझे कितनी फिर घर में,
सिखाया था कि न जाना उनके संग खेलने।
फिर 'क्यों' का जवाब कुछ मिला था मुझे ये,
"मुस्लिमों के संग रह च्युत होना न धर्म से।"
काश! मुझे उस वक़्त प्रोत्साहन मिला होता,
किसी को फिर कट्टरता का मुझसे आज न ग़िला होता।
ज़रूरत ना होती मुझे फिर आज ये कहने की,
"स्वार्थ से बनी मैं मेरा नाम आदमी"