Wednesday, December 20, 1995

हमारी माटी

ये माटी है हमारी, ये माटी है हमारी
ये ना केवल है मेरी, ना ही ये तुम्हारी

ज़ुल्म-ओ-सितम ने इस माटी को गर्त में है ढकेल दिया
कुछ नासमझों ने इसको पर्तों में है समेट दिया
पर्तों से इसको निकालने को आज हमको ललकारी।

कम-से-कम इतना तो करना ही है हमको यार मेरे
सोई हुई इस माटी को जगाना है यार मेरे
ये माटी हरदम से ही है मेरे यार बड़ी हितकारी।

प्रकृति

मुझे याद आती हैं, वो सब बातें
बुजुर्गों से जो सुनी थीं वो सब यादें।

रिमझिम-रिमझिम बारिश बरसना,
ज़ोरो से बादल का गरजना,
प्रकृति मेहरबान थी मानव पर,
दे डाला था उसने कोई वर।

पर,
मानव ने क्या किया?
कर डाला उसकी ही विनाश
हो जाएगा सत्यानाश
टूट गए हैं प्रकृति से हमारे सब के सब नाते
मुझे याद आती हैं, वो सब बातें

Tuesday, December 12, 1995

ख़ुद को पहचानो

अपनी प्रतिभा पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए लड़ने-कटने,
तुम तो आए हो कुछ करने।

अपनी ताकत पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए हाथ पर हाथ धरने,
तुम तो आए हो देश पर मरने।

अपनी विद्या पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए सीधी सी ज़िन्दग़ी बिताने,
तुम तो आए हो दुनिया को राह दिखाने।

अपनी हिम्मत पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए अँधेरे में सड़ने,
तुम तो आए हो बाधाओं से लड़ने।

अपनी क्षमता पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए किनारों पर बैठने,
तुम तो आए हो गहरे पानी में पैठने।

अपनी योग्यता पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए किसी के आगे झुकने,
तुम तो आए हो कभी न रुकने।

अपनी बुद्धि पहचानो,
मेरे देश के वीर जवानों,
तुम नहीं आए अंधविश्वासों में मरने,
तुम तो आए हो नई खोजों को करने।

Wednesday, November 15, 1995

बारिश

I

हाय रे यह बारिश
लगता है परमात्मा की
है गरीबों के ख़िलाफ़ साज़िश।

इधर हम खाते हैं,
गर्म-गर्म पकौड़े।
जिनकी फ़सलें बह जाती हैं
खाते हैं वो कोड़े।
हाय! ये छप्परों से टपकता पानी
दुःख देने में इनको जिसका नहीं है दुनिया में कोई सानी।
खुले आकाश के नीचे सोते हैं,
अपनी बदक़िस्मती पर रोते हैं,
दिन का चैन रातों का नींद खोते हैं,
अमीरों की प्यास बुझा ख़ुद पानी से तंग हो रोते हैं।

II

वो दिन की ज़ोरदार बारिश,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

मन प्राण हो गए पुलकित,
जो-जो थे अब तक विकलित,
अभी-अभी की धूप के बाद अब यह आती बारिश,
सब हो गए हैं विस्मित,
दिल हो गया है हर्षित,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

बादल हो गए हैं गर्जित,
धूप हो गई है लज्जित,
अभी ही अपना खेल दिखा कर मुँह छिपाकर है बैठी,
कृषक हो गए आनंदित
फसलें हो उठी हैं जीवित,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

प्रकृति से ये है निर्मित
कर देता है मन को पुलकित
प्रकृति का वरदान पाकर खुल उठी है छतरी,
गर्मी से हो निवृत्त,
वर्षा हुई स्थापित
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

Thursday, August 10, 1995

माँ

देखा है मैंने उसको

अपने बच्चे के लिए तड़पते हुए

उसकी सफ़लता पर अकड़ते हुए

कष्टों में उसके सिहरते हुए।

देखा है मैंने उसको

सुखी रोटी के टुकड़े निगलते हुए

पर बच्चे के पेट को भरते हुए

अपने कर्तव्यों को करते हुए।

देखा है मैंने उसको

ज़िन्दग़ी के संघर्षों से जूझते हुए

मौत के कुएँ में भी कूदते हुए

दुःख के घूँटों को घूँटते हुए।

देखा है मैंने उसको

माँ का पवित्र नाम बचाने के लिए

जहाँ के सारे दुःख अपने ऊपर लिए

बदले में हम सिर्फ उसे माँ कह दिए।