Wednesday, November 15, 1995

बारिश

I

हाय रे यह बारिश
लगता है परमात्मा की
है गरीबों के ख़िलाफ़ साज़िश।

इधर हम खाते हैं,
गर्म-गर्म पकौड़े।
जिनकी फ़सलें बह जाती हैं
खाते हैं वो कोड़े।
हाय! ये छप्परों से टपकता पानी
दुःख देने में इनको जिसका नहीं है दुनिया में कोई सानी।
खुले आकाश के नीचे सोते हैं,
अपनी बदक़िस्मती पर रोते हैं,
दिन का चैन रातों का नींद खोते हैं,
अमीरों की प्यास बुझा ख़ुद पानी से तंग हो रोते हैं।

II

वो दिन की ज़ोरदार बारिश,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

मन प्राण हो गए पुलकित,
जो-जो थे अब तक विकलित,
अभी-अभी की धूप के बाद अब यह आती बारिश,
सब हो गए हैं विस्मित,
दिल हो गया है हर्षित,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

बादल हो गए हैं गर्जित,
धूप हो गई है लज्जित,
अभी ही अपना खेल दिखा कर मुँह छिपाकर है बैठी,
कृषक हो गए आनंदित
फसलें हो उठी हैं जीवित,
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

प्रकृति से ये है निर्मित
कर देता है मन को पुलकित
प्रकृति का वरदान पाकर खुल उठी है छतरी,
गर्मी से हो निवृत्त,
वर्षा हुई स्थापित
मन हर्ष-विह्वल हो उठा,
गर्मी का मौसम रो उठा।

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