Wednesday, September 03, 2003

कहीं सच तो नहीं था?

वो निराश निग़ाहें, वो हताश बाँहें,
सहारे की गुहार करती वो आहें,
रास्ते चलते लुट जाने का किस्सा
कहीं सच तो नहीं था?

मैंने दुनिया में जीना सीखा है,
अविश्वास का घूँट पल-पल पीना सीखा है,
पर मेरी ओर बढ़ते उस हाथ का विश्वास
कहीं सच तो नहीं था?

घिरे बादलों में बिजली कभी चमक जाती है,
गलती से उसमें भले राहें दिख जाती हैं
पर दिखा था मुझे जो प्रकाश
कहीं सच तो नहीं था?

क्या मैंने सच में छोड़ दिया है विश्वास?
खड्गसिंह की हरक़त पर बाबा भारती का निःश्वास,
उनकी वो आशंका, वो शक़
कहीं सच तो नहीं था?


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