Sunday, October 15, 2006

मैं ही तो बेराह नहीं?

सब आ जाते रास्ते पर मैं ही तो बेराह नहीं?
सबके दिन फिरते रब तक जाती मेरी आह नहीं।

छिन जाता है ये भी, वो भी, हँस कर पर देखा करती मैं
बहाने की दो आँसू भी क्यों रह गई मुझको चाह नहीं।

गीत सुना जाते शायर सब, पंछी भी कुछ गा जाते हैं,
दर्द कौन सा है अंदर कि कहती मुँह से वाह नहीं।

इम्तिहान ये ज़िन्दग़ी के इतने लंबे क्यों होते हैं
कहना पड़ जाता है खुलकर - और अब अल्लाह नहीं।

Sunday, October 01, 2006

देखने में रास्ता छूट गए हैं सब नज़ारे

देखने में रास्ता छूट गए हैं सब नज़ारे,
मिल गई मंज़िल मग़र कब मिलेंगे अब नज़ारे।

नहीं थी देनी फुर्सत गर देख पाने की हमें,
रास्तों के बगल मे क्यों दिए थे रब नज़ारे?

पहुँच कर भी मंज़िल पर हारे हुए से हम रहे,
पीछे खड़ा खड़ा ही पर देख रहा है जग नज़ारे।

मंज़िल यों बेज़ार है कि ख़याल ये भी आता है
सच है मंज़िल या कहो फिर सच कहीं थे बस नज़ारे।