मैं ही तो बेराह नहीं?
सब आ जाते रास्ते पर मैं ही तो बेराह नहीं?
सबके दिन फिरते रब तक जाती मेरी आह नहीं।
छिन जाता है ये भी, वो भी, हँस कर पर देखा करती मैं
बहाने की दो आँसू भी क्यों रह गई मुझको चाह नहीं।
गीत सुना जाते शायर सब, पंछी भी कुछ गा जाते हैं,
दर्द कौन सा है अंदर कि कहती मुँह से वाह नहीं।
इम्तिहान ये ज़िन्दग़ी के इतने लंबे क्यों होते हैं
कहना पड़ जाता है खुलकर - और अब अल्लाह नहीं।