Sunday, August 27, 2006

Dedicated to Bangalore life!

तरस गई हूँ मैं
पथरा गई आँखें।
देख चुकी रास्ता
कई बार जा के।

पूछा पड़ोसियों से
उसे देखा है कहीं।
पागल समझते हैं
मुझे लोग सभी।

बहुत मन्नतें माँगी
बहुत रोई, गिड़गिड़ाई।
कितने संदेशे भेजे पर
काम वाली आज फिर नहीं आई।

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जाओ बढ़ो,
बिना हॉर्न बजाए,
मुझे बाईं ओर से
एक इंच की भी दूरी दिए बिना
ओवरटेक करो
चलाओ अपनी गाड़ी
साँप की तरह रेंगते हुए
करो आगे उसे
इधर से, उधर से
जान आफ़त में डालते हुए।
क्या होगा अगर आगे मुझसे निकल भी गए तो?
अगले जाम में
या अगले सिगनल पर
हमें फिर मिलना है।
फिर एक ही जगह से
सब शुरु करना है।

लेकिन फिर भी
जाओ, बढ़ो।


Tuesday, August 22, 2006

कहाँ ढूँढ़ूँ मैं अपना जहाँ

कहाँ ढूँढ़ूँ मैं अपना जहाँ
अपनी ज़मीं और आसमां।

सपनों में अक्सर देखा है
फूल वो खिलता है कहाँ?

तारों से जो झरता है
किसने देखा है वो झरना?

उड़ पाऊँ जिनसे मैं खुलकर
पंख कहो रखे हैं कहाँ?


Friday, August 04, 2006

जो है मन में उनसे अब कविताएँ नहीं बनती

जो है मन में उनसे अब कविताएँ नहीं बनती।
डुबाए बिना जो भिगो जाएँ, धाराएँ नहीं बहती।

खुशियाँ बेरुखी सही, पर दर्द भी रसहीन है।
बंजर मिट्टी पर कभी लताएँ नहीं सजती।

हुनर नहीं कि बोल कर भी बात छिपा जाएँ
बेबाक नहीं हो सकते उससे बात नहीं बनती।

बनाते हैं वे ख़ुदा तुम्हें, अहसान नहीं करते
ख़ुदाओं से दुनिया कभी ख़ताएँ नहीं सहती।