Tuesday, August 24, 2004

आज मैं अकेली हूँ

मैं अकेली हूँ।

अकेलापन,
जो जंगल में रहने से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन लोगों के बीच रहने से आता है
जिनकी भाषा समझ में नहीं आती है।

अकेलापन,
जो लोगों की कमी से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन्हें समझ नहीं पाने पर
खुद पर आने वाली खीझ से आता है।

अकेलापन,
जो अकेले रहने पर नहीं आता
बल्कि वो
जो इतने सारे लोगों के बीच
ख़ुद के ग़ुम हो जाने से आता है।

अकेलापन,
जो किसी से बातें नहीं कर पाने से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन बातों को करने की मजबूरी,
जो नहीं करना चाहती, से आता है

आज मैं अकेली हूँ।

Thursday, August 12, 2004

गुज़रा वक़्त

अभी तो फिर भी कुछ लोग
मुझे वहाँ पहचान लेते हैं,
पहले आश्चर्य, फिर खुशी से
खुद को मेरी याद दिला देते हैं।

पर यह सच है कि अब
मैं वहाँ की नहीं रही,
बावजूद इसके की जो मुझे मिला वहाँ
वो मिलेगा अब कहीं नहीं।

याद आ रहे हैं मुझे आज
उन सड़कों पर वो पहले सहमे से क़दम
कैसे उस अरसे में उनमें, जो था
निकलते वक़्त, वो भर गया था दम।

जीवन की हर रोज़ खुलती
एक नई तस्वीर, एक नई रेखा।
दुनिया को एक विस्तृत दृष्टि से
मैंने था पहली बार देखा।

दोपहर में बदलती सुबह और
हर दोपहर के बाद आती शाम,
थोड़ा मुझे बदलने में, थोड़ा वही रखने में,
करती जाती थी अपना काम।

वे ठहाके उन्मुक्त क्षणों के
कुछ दिन तो वहाँ गूँजेंगे,
फिर भले ही छिप जाएँ अतीत की परतों में
वापस आकर हम फिर उन्हें ढूँढ़ेंगे।

वे आँसू जो कभी निकले और कभी नहीं,
उस मिट्टी का जिन्होंने गीला किया था एक कोना,
शायद फिर से जी उठेंगे जब किसी और को
भी पड़ेगा उसी परिस्थिति में रोना।

वो छोटी-छोटी खुशियाँ जो मिलीं
कुछ छोटी-छोटी बातों पर,
कई बार गुदगुदा जाती हैं
थकान भऱे दिन के बाद की रातों पर।

ओर कुछ हार व असफलताएँ
जिन्होंने हताश किया, पर मजबूत भी किया,
कैसे कर्ज़ चुका पाऊँगी, जो कुछ
उन सबने मुझे है दिया।

आज बैठी-बैठी कुछ अकेले क्षणों में
याद कर रही हूँ तुम्हें, उस गुजरे वक़्त को,
एक साथ ही मुझे बना गया,
कहीं नरम, ओर कहीं सख़्त जो।