मैं शोषित हूँ
मैं शोषित हूँ।
समाज का अनिवार्य अंग
कोई नहीं कर सका अबतक भंग।
क्योंकि समाज की उन्नति अनिवार्य है,
साधनों का सीमित होना अपरिहार्य है,
तो किसी की उन्नति से किसी का पतन होगा ही,
और हर युग में मेरे वर्ग का गठन होगा ही।
मेरा यह वर्ग था राज्य में राम के।
जानते हो आज उसे उर्मिला के नाम से।
साहित्य ने तो सदियों बाद भी उसे जिला दिया,
पर उस वक़्त की वेदना ने तो था उसे जला दिया।
पर कोई उपाय अन्य था न प्रभु के भी दिमाग़ में।
कैसे होता वह सब जो हुआ उसकी आड़ मे?
उपेक्षित होता ना चरित्र वो तो पूजते कैसे राम को?
और जो न पूजते तो मानते क्यों भगवान को?
देखा था मेरा चरित्र कृष्ण के अवतार ने,
जब भेदा था गगन खांडवानल में मेरी चीत्कार ने।
मैं छिपा था निर्दोष उस वन के जीवों में,
जिसपर बसाया इन्द्रप्रस्थ था फिर उन वीरों ने।
बचाने ग़र लगते हमें तो बीत जाती शताब्दियाँ,
कैसे बनतीं फिर जो बनीं थी कहानियाँ?
मिलता कैसे फिर भीषण संग्राम वो इतिहास को?
कैसे ललकारता फिर कोई मानवों के खून की प्यास को?
तुम्हारे प्रामाणिक इतिहास में भी भरी है कहानी कई,
पर सुनी नहीं तुमने वो मेरी ज़ुबानी कभी।
शोषण ना होता मेरा तो होते कैसे वो महल खड़े,
तुम्हारे समृद्ध इतिहास के जो हैं आज साक्षी बने?
वो न होते तो तुम्हारा आत्मगौरव फिर जगाता कौन?
संग्राम के नवीनतम इतिहास को आधारशिला दिलाता कौन?
ताजमहल के बाद ग़र हाथ न कटते मेरे,
तो सौंदर्य में संभावित कुकर्म याद दिलाता कौन?
पर ऐसा नहीं कि मेरी अनिवार्यता को
मैंने हमेशा स्वीकार ही किया है।
मेरी बेबसी, मेरी कमज़ोरी पर कई बार
मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कर भी दिया है।
तभी तो मार्क्स की आवाज़ पर, लेनिन की पुकार पर,
उतारू हो गया था मैं जार के संहार पर।
पर उनकी वो खूनी हत्या अहसास ये दिलाती है,
घटनाएँ नहीं पात्र बदलने की याद दिलाती है।
बताया था गांधी ने असहयोग उनसे करो,
शोषण से मुक्ति पाओ या फिर लड़कर मरो।
हा! भूल गया क्यों शोषण अनिवार्य है मेरा,
उनको भगाकर भी मैं शोषित का शोषित रहा।
रेशम को सूत बनाने की भी कोशिश रही,
कभी सफल, कभी असफल, कहानी चलती रही।
सूत रेशम से डरता रहा, दबता रहा,
कहानी घटनाएँ नहीं, पात्र बस बदलती रही।
कहानियाँ यों ही आगे भी चलती रहेंगी।
शोषक और शोषित में भेद यों ही करती रहेंगी।
कोई न मिटा सकेगा यहाँ से शोषितों के नाम को।
बनाया मजबूत हमें इतना धन्यवाद भगवान को!