क्या मिला है तुम्हे?
क्या मिला है तुम्हें
इस पूरे तमाशे से?
शून्य में क्या कमी थी?
सम्पूर्ण तो था -
क्यों बनाए इंसान?
मनोरंजन के लिए?
जैसे कि इंसान मनोरंजन के लिए
जन्म देता है -
कहानियों को -
काल्पनिक, सुंदर, नाटकीय
और दिल बहलाता है अपना।
पर कैसा मनोरंजन?
ख़ुद को ही तो कष्ट देते हो -
इतना कुछ व्यवस्थित करने में।
तो क्या यह तुम्हारा पुरुषार्थ है?
जो तुम कुछ नया,
रचनात्मक करना चाहते थे?
और इसलिए
सृजन कर डाला पूरी सृष्टि का।
छोटे-छोटे खिलौने बनाए
और तुम्हारा पुरुषार्थ संतुष्ट हो गया -
क्या वैसे ही जैसे मानव का पुरुषार्थ
'आग' से लेकर परमाणु तक की ख़ोज हेतु
उसे प्रेरित करता रहा है?
क्या सचमुच
यह सब, सारा खेल
तुम्हारे पुरुषार्थ की ही तुष्टि है?
लेकिन क्या इसके लिए तुम्हारे दैत्य भाई काफी नहीं थे?
उनके किए विध्वंस का पुनर्निर्माण -
तुम्हारी रचनाशीलता को तृप्त नहीं करता?
या ये तुम्हारे अहं की तुष्टि है?
जब इंसान तुम्हारे आगे सिर झुकाता है,
खुशियों की भीख माँगता है,
तुम्हें अपना सर्वस्व बताता है,
तो तुम्हें आत्मगौरव महसूस होता है।
ठीक वैसे ही, जैसे कोई बच्चा
अपने शिक्षक के अधिकारों से परेशान,
अपने ही खिलौनों के समक्ष
शिक्षक बनकर
तुष्टि करता है अपने अहं की।
क्या यही है - इन सबका मूल?
लेकिन नहीं -
तुम्हें मैं मानवीय मनोविज्ञान पर
शायद नहीं तौल सकती -
तुम उत्तर देने को तो मिलोगे नहीं -
इसलिए चुप हो जाती हूँ आज -
लौट जाती हूँ अपनी दुनिया में -
अपने कर्तव्य-पथ पर -
लेकिन अगर मौत के बाद भी तुम मिलते हो -
तो ज़रूर पूछूँगी तुमसे -
क्या मिला है तुम्हें -
इस पूरे तमाशे से?