वो लड़की बनी थी
सोते वक़्त उसके कानों में लोरियाँ नहीं पड़ीं,
उठते वक़्त माँ के प्यारे होठों ने उसे चूमा नहीं,
किताबों की ओर उसकी हसरत भरी निग़ाहें ही जा सकीं,
स्कूल जाते हुए संगी-साथियों के संग वो घूमा नहीं।
उठते ही कामों की लिस्ट उसके सामने पड़ी थी,
कोल्हू के बैल की तरह बिताया उसने दिन,
रात को टूटे हुए शरीर के साथ ज़रूरी नहीं था,
कि वह सोने की कोशिश करता तारे गिन-गिन।
बाल-सुलभ हर आकांक्षा मन में ही दब गई थी,
ज़िद करने का अधिकार उससे छिन गया था,
"बच्चे - मर्ज़ी के मालिक" की परिभाषा के विपरीत था वो
समय से पहले, ज़रूरत से ज़्यादा दायित्व मिल गया था।
मैंने आख़िर किसी से पूछ ही डाला,
"नौकरों-सा क्यों है उस घर से उसका नाता?"
जवाब मिला,"कैकेयी की परंपरा निभाती हुई
उसके घर में है सौतेली माता।"
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बड़ी-बड़ी आँसू भरी वो आँखें
उसकी व्यथा आप ही कह रहीं थी,
रात को झिड़कियाँ सुनकर सोई थी वो
सुबह उठकर फिर से बातें सह रही थी।
भाई का बस्ता सजाते हुए पेन खोला,
तो हाथ काँपे मानो चोरी कर रही हो।
हर हसरत की तरह इसे भी दबा लिया
लगा ऐसा जीते-जी वो मर रही हो।
देखने में बच्ची लगने वाली वो,
समय के पहले ही बड़ी हो गई थी,
उपेक्षा का विषपान करता देख उसे लगता था
मानो सर पर बोझ बन वो खड़ी हो गई थी।
जवाब माँगा मैंने उसके समाज से,
"क्यों?" उसकी तो माँ सौतेली नहीं थी।
सीधा-सपाट उत्तर मेरे कानों में पड़ा,
"विधाता के हाथों वो लड़की बनी थी।"