मेरी महत्वाकांक्षा
आपकी ही तरह, मैंने भी पाल रखी है एक महत्वाकांक्षा,
न जाने ये समाज पूरी होने भी देगा या नहीं मेरी आकांक्षा,
पर,
यह समाज सोचने से तो नहीं रोक सकता ना!
कभी मन में ये आता है कि
इंजीनियर होकर
ऊँचे महल सजाऊँ।
कभी जी में आता है, डॉक्टर बन
रोते हुए को हँसाऊँ
कभी ये सोचती हूँ कि ऑफ़िसर बन कर
हुक़्म चलाऊँ
कभी मज़दूर होने का जी करता है
ताकि
उनके सुख-दुख में हाथ बँटाऊँ।
पर,
कौन जानता है,
क्या होगा मेरा भविष्य?
शायद
हो सीता की तरह
जो सारे जीवन रो-रो कर भी
कुछ न पा सकी,
या सावित्री के समान
जो अपने पति की
ज़िन्दग़ी वापस ला सकी
या हो
उस आधुनिका की तरह
जो,
अकड़ती हुई चलती है,
या मनुबाई की तरह,
जो देश पर जान फ़िदा करती है।