Tuesday, February 22, 2005

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

हाथों में लेकर अपनी क़िस्मत,
सर उठाने की करूँगी हिम्मत।
और कभी ले जाए जहाँ चाहे तू मुझे,
दे पल तो अपना स्वप्न देश मैं ही चुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

बताकर स्वप्न व यथार्थ का अंतर,
बरसाती रह तू शोले मुझपर,
पर मुझे रोकना नहीं मैं दो पल
कुछ सपने अपने कहीं बुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

Monday, February 21, 2005

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

विनाश आसानी से दिख रहा था,
अस्तित्व मानवता का मिट रहा था।
पर उन लाशों और खून सनी धरती पर ही
किसी को फूल बहार के दिए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

अनजान सा पथ था, रास्ता मुश्किल था,
प्रतियोगी आगे, डर जाता ये दिल था।
पर उनपर ही आगे बढ़कर मैंने
सपनों के किरदार बड़े किए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

ऊपर उठी मैं कुछ दृश्य रह गए पीछे,
दब गई वो दुनिया एक चमकती परत के नीचे।
आज याद आया तो सोचने लगी मैं, किसने
पैबंद हटा हीरे कई आकार के दिए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

Sunday, February 20, 2005

मैं लिखती ही जाऊँगी

मैं लिखती ही जाऊँगी।

जाने कौन सा है समंदर
बह रहा जो मेरे अंदर।
कभी खाली नहीं कर पाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

कभी मतलब का, कभी बेमतलब,
उमड़ता रहता है पर सब।
कहाँ इन्हें ले जाऊँगी?
मैं लिखती ही जाऊँगी।

आँसू होंगे हँसी होगी,
ग़म, कभी खुशी होगी।
सबका साथ निभाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

विशाल विश्व, जटिल दुनिया,
मैं इसमें छोटी-सी चिड़िया।
कुछ कर ना शायद पाऊँगी।
पर लिखती ही जाऊँगी।

कोई शायद पहचानेगा,
कोई व्यर्थ ही मानेगा।
पर किसी का क्या ले जाऊँगी?
मैं लिखती ही जाऊँगी।

दर्द, हँसी, आँसू सब मिलकर,
जब खेल रचाएँ मेरे दिलपर।
लिख कर ही चैन पाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

आभार उसका जिसने दी भाषा,
कलम ने पूरी की अभिलाषा।
उद्देश्य उनका निभाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

Wednesday, February 16, 2005

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

सपने दिखाती है ये हज़ार
सभी मानों रहे हों पुकार।
पर अलग-अलग सपनों के बीच
दीवार खड़ी करती क्यों है?

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

Sunday, February 13, 2005

क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

क़दम अकेले बढ़ाए मैंने कई बार,
पर्वतों-खाईयों को किया अकेले पार।
उतार-चढ़ाव ज़िन्दगी के
कितने ही झेली हूँ मैं।

और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

कभी उतरी एक देश अनजान,
निकली बाहर जब थी नादान।
और तब भी तनहाइयों से
हँसते-हँसते खेली हूँ मैं।

और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

Thursday, February 10, 2005

जड़ और फल

जड़ें मिट्टी के अंदर होती हैं,
वहाँ पानी और पोषण तो रहता है।
पर हवा ढंग से नहीं पहुँचती और
जीवन जड़ है, कभी नहीं बहता है।

खुली हवा खाते हैं, तोड़े जाते हैं,
फल जो ऊँचाई पर उगते हैं।
किसी की भूख मिटाते हैं,
किसी बीमार का पथ्य बन जाते हैं।
कई हाथों से गुज़रते हैं, दुनिया देखते हैं,
और दुनिया के काम आते हैं।

पर जीवन उनका भी तो जड़ से ही आता है,
और इसलिए एक सवाल मुझे खाए जाता है -
काश ये समझ पाती कि क्या करूँ।
फल बनूँ या कि मैं जड़ बनूँ?


गीत कोई मन में तो है

गीत कोई मन में तो है।

सड़क नहीं है तेज धूप है,
पड़ा मानव का विकृत रूप है।
भूख अकेली नहीं साथ में
गिरा हुआ एक छत भी है।
सिहरन उसकी तन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

बंद भविष्य के रास्ते हैं,
अँधेरों में दिन काटते हैं ।
विडंबना ही है क़िस्मत की,
वरना कुछ कर पाने की क्षमता
थोड़ी हर जन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

सूखा क्यों लगता ये विवरण,
ख़ुद को धिक्कारता क्यों है मन?
कुछ छूट गया है, कुछ छोड़ आई हूँ,
कुछ सच्चाइयों से दूर करने की हाय!
क्षमता अभागे धन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

Friday, February 04, 2005

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

किस्से नहीं सुनाते हम,
हाल-ए-दिल नहीं बताते हम,
ज़ाहिर करते नहीं हम पर
तक़दीर की क्या इनायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

डरते हैं हम अपने ही कल से,
जीते हैं एक पल से दूजे पल पे,
कैसे बताएँ इनायत करने वाली
तक़दीर की क्या हिदायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

आज हम बाँटे ख़ुशियाँ अपनी,
रहमदिल हुई कब दुनिया इतनी,
कल छिन गईं तो सह न सकेंगे,
जो हँसी में उड़ाने की रवायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।


Tuesday, February 01, 2005

गीतों को कैसे जीती हूँ मैं

ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।
कैसे इस श्रापग्रस्त धरती पर होकर
भी देवों का अमृत पीती हूँ मैं ।

कितना बुरा लगता है मुझे
कि खुशियाँ नहीं बाँट सकती अपनी,
भाग्य के पक्षपात पर भी आश्चर्य होता है,
ज़िन्दग़ी अजीब होती है कितनी ।

पर फिर भी अगर मेरी एक मुस्कान,
या एक हँसी पहुँचती है तुझतक,
गा ले एक छोटा-सा गीत तू भी खुश होकर,
देखूँ क्या गूँज आती है मुझतक?

स्वार्थी ! स्वार्थी ! मेरा मन मुझे ही
धिक्कारता है पर घोंट लेती हूँ मैं ।
ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।