Monday, October 14, 2013

हम हर शहर से अजनबी हैं

रुकते बस कभी कभी हैं
हम हर शहर से अजनबी हैं।

गुल खिलते, मुरझा जाते हैं
सब खाक़ के हमनशीं हैं।

ख़्वाबों से भी गायब वो
ख़ूबसूरत माहज़बीं हैं।

नहीं हमारा हक़ लेकिन
जन्नत में कमी नहीं है।

Sunday, September 08, 2013

एक टुकड़ा ज़मीन

एक मुठ्ठी आसमान
ढूँढ़ने के दिन चले गए।
आसमान पर ही तो लटके हैं हम,
कई फीट ऊपर।
त्रिशंकु बन गए हैं।

एक टुकड़ा ज़मीन मिल जाए
पैरों के नीचे बस,
आसमान हम फिर कभी ढूँढ़ लेंगे।