Saturday, September 13, 2003

आज तो मुझे मानना पड़ेगा

हाँ, आज तो मुझे मानना पड़ेगा
कि तुमने मुझे हरा दिया है,
मैं सत्य की जीत की आशा में थी,
पर सिद्धांतों ने मेरे साथ छलावा किया है।

लेकिन नहीं तोड़ पाओगे मुझे क्योंकि
ऐसा कुछ पहली बार नहीं हुआ है,
तुम्हें मैंने पहले भी कई रूपों में देखा है,
कई बार तुमने मुझे परेशान किया है।

कई बार क़दम पीछे हटाए हैं मैंने,
पर सत्य के क़दम के साथ ईश्वर होता है,
पीछे हटने वालो क़दम छलांग लगाकर
पार कर जाएँगे तुम्हें, शायद तुमने नहीं सोचा है।

क्योंकि तुम्हारा इतिहास छोटा है,
और वो हमेशा छोटा ही रहा है,
इसलिए तुमने दूर की नहीं सोची
और हार का अहसास तुम्हारे साथ रहा है।

इसलिए मेरे साथ ये नाटक खेल क
उस अहसास को दबाना चाहते हो
तुम्हारे लिए अच्छा होता, अगर तुम ये देख पाते,
दबाने की कोशिश में उसे और भड़का देते हो।

वैसे आज तो मुझे मानना पड़ेगा
कि तुमने मुझे हरा दिया है,
पर यह तुमपर ही वापस आएगा
ज़हर का जो घूँट मैंने पिया है।

Wednesday, September 03, 2003

कहीं सच तो नहीं था?

वो निराश निग़ाहें, वो हताश बाँहें,
सहारे की गुहार करती वो आहें,
रास्ते चलते लुट जाने का किस्सा
कहीं सच तो नहीं था?

मैंने दुनिया में जीना सीखा है,
अविश्वास का घूँट पल-पल पीना सीखा है,
पर मेरी ओर बढ़ते उस हाथ का विश्वास
कहीं सच तो नहीं था?

घिरे बादलों में बिजली कभी चमक जाती है,
गलती से उसमें भले राहें दिख जाती हैं
पर दिखा था मुझे जो प्रकाश
कहीं सच तो नहीं था?

क्या मैंने सच में छोड़ दिया है विश्वास?
खड्गसिंह की हरक़त पर बाबा भारती का निःश्वास,
उनकी वो आशंका, वो शक़
कहीं सच तो नहीं था?