Monday, August 28, 2000

कर्मवाद

मैं चली जा रही थी
सीधी-समतल सड़क पर।
नकारती तुम्हारा अस्तित्व
मानवीय क्षमताओं की अकड़ पर।

सामने तभी एक पतला
छिछल-सा नाला आया।
कल्पनाओं में उड़ते मेरे मन को
यथार्थ का वह स्पर्श न भाया।

झुका तो नहीं था वह अभी
कुछ परिवर्तन हुए ज़रूर।
अस्तित्व तुम्हारा मानने तो लगा,
टूटा अभी पर नहीं था ग़रूर।

"बस पार करा दो इसे",
उस दिन उसने प्रार्थना की थी।
"इसके बाद और कुछ नहीं",
अकड़ भरी 'याचना' की थी।

दया दिखाई थी तुमने,
पार करा दी वह मुसीबत।
सोचा उसने पा ली मंज़िल,
पर अचानक गया था ठिठक।

सामने उफन रही थी नदी,
उसे फिर तुम्हारा ध्यान आया।
ग़रूर के शीशे को चूर कर,
हाथ जोड़ तेरे पास वो आया।

विनती वह हो गई स्वीकार,
बचे हुए आत्माभिमान के साथ,
बढ़ा ढूँढ़ने मंज़िल को,
विश्वास लेकर अपने हाथ।

आत्माभिमान भी अपना
कर दिया तुम्हें अर्पण,
सामने खड़े पहाड़ ने जब
दिखाया उसे सही दर्पण।

फिर आया सपनों का 'समतल'
जब मैदान उसके सामने - देख हक़ीकत,
सर्वस्व व्यर्थ जानकर अपना
कर कर दिया समर्पण तेरे आगे।

मान गया वह कठपुतली है,
तेरे अजर-अमर हाथों की।
भाग्यवाद की बात नहीं है,
कर्मवाद का सार यही है।

Wednesday, July 05, 2000

ज़िन्दग़ी और गाड़ी

बात सही ही है किसी की,
इन्सानी इस ज़िन्दग़ी की,
सही उपमा गाड़ी ही है।
चलती वो भी ज़िन्दग़ानी भी है।

अलग-अलग दौर होते ज़िन्दग़ी के,
अलग-अलग तरह की होती हैं गाड़ियाँ।
हर क़िस्म की गाड़ी चलती रहती है।
वैसे ही चलती हैं हर दौर की कहानियाँ।

बचपन यहाँ हुआ करता है
सुपर फास्ट ट्रेन की तरह,
'चिन्ता' जैसे अनारक्षित लोगों के लिए
माफ़ करना होती नहीं इसमें जगह।

चालक को कुछ सोचना रहती नहीं,
निर्देश सारे आते हैं कहीं और से।
निश्चिंत, निर्विघ्न गुज़र जाते हैं लोग
बड़ों की छाया में बचपन के दौर से।

फिर आती है बस चलाने की बारी,
भीड़-भाड़ और धूल भरी सड़क पर।
अपने विवेक से निर्णय लेने पड़ते हैं
आदमी आता है जब यौवन की दहलीज पर।

हर क्रॉसिंग पर रुकती हुई,
चलती है सवारी गाड़ी बेटिकटों को भी ढोती हुई,
कटता है बुढ़ापा यों ही झुकता हुआ,
देता अपना बलिदान सबके लिए रुकता हुआ।


Thursday, April 13, 2000

मैं अकेली हूँ

अकेलेपन! तुझसे क्या शिक़ायत करूँ?
मैं ही तो खींच लाई हूँ तुझे।

क्योंकि मैं अकेली रहना चाहती हूँ,
गुटनिरपेक्षता मेरी
रग-रग में
समाई हुई है।

लेकिन मैं खुश हूँ
तुझे पाकर ही।
क्योंकि तू स्थायी है।
और इस स्थायित्व पर
गर्व कर सकती हूँ मैं।
तुझे साथ लिए, मज़े में
जी और मर सकती हूँ मैं।

किस बात का दुःख हो मुझे?
अकेली हूँ इसका?

पर क्या वो अकेले नहीं
जो धारा में
बहे जा रहे हैं सबके साथ?
कभी भी धारा के बीच
किसी शिलाखंड से टकरा
बेहोश हो जाएँगे।
और कुछ देर बाद
आँखें खुलने पर पाएँगे
कि कोई नहीं रुका -
तो क्या वो अकेले नहीं थे?

तो फिर क्यों ग़म हो मुझे?

मैं अकेली नज़र आती हूँ
क्योंकि मैं
उनकी तरह
किसी को पूज नहीं सकती,
ना ही किसी पर थूक सकती हूँ।
मैं राम-राज्य के सपने नहीं देखती,
ना ही उदास क्षणों में
मरने की बात करती हूँ।
क्योंकि मैं कुबेर-कोष की नहीं सोचती,
न ही सर्वस्व दान की बात करती हूँ।
क्योंकि मैं अपनी पहुँच तक पाप नहीं करती,
ना ही महात्मा होने का
ढोंग रचती हूँ।
क्योंकि मैं आवश्यकता-पूर्ति के
उद्यमों से नहीं डरती,
ना ही बिना काम के
आग पर पैर धरती हूँ।

लेकिन मैं खुश हूँ
क्योंकि मैं
उनसे ज़्यादा अकेली नहीं,
जो कभी पूजकर कभी थूकते हैं,
कभी आकाश, कभी पाताल
में होते हैं।
कभी कुबेर, कभी गुदड़ीलाल
बनते हैं।
कभी दुरात्मा, कभी महात्मा
ख़ुद को कहते हैं।
कभी शोलों पर चलने की कहते हैं,
कभी एक दिये से डरते हैं।

क्योंकि वो नहीं अपनाना चाहते तुझे
दूर भागते हैं तुझसे,
अपनी नियति से,
इसलिए नाखुश हैं,
बेचैन हैं,
उदास हैं।

पर मैं खुश हूँ
क्योंकि मैंने अपनाया है तुझे।
दबाव में नहीं - स्वेच्छा से - हँसकर।
मैं नियति को चुनौती नहीं दूँगी -
पर वो जहाँ तक बढ़ाएगी
वहाँ पहुँचने में
नहीं चूकूँगी।

हालाँकि, मैं अकेली हूँ।


Thursday, February 24, 2000

मैं शोषित हूँ

मैं शोषित हूँ।
समाज का अनिवार्य अंग
कोई नहीं कर सका अबतक भंग।

क्योंकि समाज की उन्नति अनिवार्य है,
साधनों का सीमित होना अपरिहार्य है,
तो किसी की उन्नति से किसी का पतन होगा ही,
और हर युग में मेरे वर्ग का गठन होगा ही।

मेरा यह वर्ग था राज्य में राम के।
जानते हो आज उसे उर्मिला के नाम से।
साहित्य ने तो सदियों बाद भी उसे जिला दिया,
पर उस वक़्त की वेदना ने तो था उसे जला दिया।

पर कोई उपाय अन्य था न प्रभु के भी दिमाग़ में।
कैसे होता वह सब जो हुआ उसकी आड़ मे?
उपेक्षित होता ना चरित्र वो तो पूजते कैसे राम को?
और जो न पूजते तो मानते क्यों भगवान को?

देखा था मेरा चरित्र कृष्ण के अवतार ने,
जब भेदा था गगन खांडवानल में मेरी चीत्कार ने।
मैं छिपा था निर्दोष उस वन के जीवों में,
जिसपर बसाया इन्द्रप्रस्थ था फिर उन वीरों ने।

बचाने ग़र लगते हमें तो बीत जाती शताब्दियाँ,
कैसे बनतीं फिर जो बनीं थी कहानियाँ?
मिलता कैसे फिर भीषण संग्राम वो इतिहास को?
कैसे ललकारता फिर कोई मानवों के खून की प्यास को?

तुम्हारे प्रामाणिक इतिहास में भी भरी है कहानी कई,
पर सुनी नहीं तुमने वो मेरी ज़ुबानी कभी।
शोषण ना होता मेरा तो होते कैसे वो महल खड़े,
तुम्हारे समृद्ध इतिहास के जो हैं आज साक्षी बने?

वो न होते तो तुम्हारा आत्मगौरव फिर जगाता कौन?
संग्राम के नवीनतम इतिहास को आधारशिला दिलाता कौन?
ताजमहल के बाद ग़र हाथ न कटते मेरे,
तो सौंदर्य में संभावित कुकर्म याद दिलाता कौन?

पर ऐसा नहीं कि मेरी अनिवार्यता को
मैंने हमेशा स्वीकार ही किया है।
मेरी बेबसी, मेरी कमज़ोरी पर कई बार
मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कर भी दिया है।

तभी तो मार्क्स की आवाज़ पर, लेनिन की पुकार पर,
उतारू हो गया था मैं जार के संहार पर।
पर उनकी वो खूनी हत्या अहसास ये दिलाती है,
घटनाएँ नहीं पात्र बदलने की याद दिलाती है।

बताया था गांधी ने असहयोग उनसे करो,
शोषण से मुक्ति पाओ या फिर लड़कर मरो।
हा! भूल गया क्यों शोषण अनिवार्य है मेरा,
उनको भगाकर भी मैं शोषित का शोषित रहा।

रेशम को सूत बनाने की भी कोशिश रही,
कभी सफल, कभी असफल, कहानी चलती रही।
सूत रेशम से डरता रहा, दबता रहा,
कहानी घटनाएँ नहीं, पात्र बस बदलती रही।

कहानियाँ यों ही आगे भी चलती रहेंगी।
शोषक और शोषित में भेद यों ही करती रहेंगी।
कोई न मिटा सकेगा यहाँ से शोषितों के नाम को।
बनाया मजबूत हमें इतना धन्यवाद भगवान को!

Friday, January 07, 2000

क्या मिला है तुम्हे?

क्या मिला है तुम्हें
इस पूरे तमाशे से?
शून्य में क्या कमी थी?
सम्पूर्ण तो था -
क्यों बनाए इंसान?
मनोरंजन के लिए?
जैसे कि इंसान मनोरंजन के लिए
जन्म देता है -
कहानियों को -
काल्पनिक, सुंदर, नाटकीय
और दिल बहलाता है अपना।
पर कैसा मनोरंजन?
ख़ुद को ही तो कष्ट देते हो -
इतना कुछ व्यवस्थित करने में।

तो क्या यह तुम्हारा पुरुषार्थ है?
जो तुम कुछ नया,
रचनात्मक करना चाहते थे?
और इसलिए
सृजन कर डाला पूरी सृष्टि का।

छोटे-छोटे खिलौने बनाए
और तुम्हारा पुरुषार्थ संतुष्ट हो गया -
क्या वैसे ही जैसे मानव का पुरुषार्थ
'आग' से लेकर परमाणु तक की ख़ोज हेतु
उसे प्रेरित करता रहा है?
क्या सचमुच
यह सब, सारा खेल
तुम्हारे पुरुषार्थ की ही तुष्टि है?
लेकिन क्या इसके लिए तुम्हारे दैत्य भाई काफी नहीं थे?
उनके किए विध्वंस का पुनर्निर्माण -
तुम्हारी रचनाशीलता को तृप्त नहीं करता?

या ये तुम्हारे अहं की तुष्टि है?
जब इंसान तुम्हारे आगे सिर झुकाता है,
खुशियों की भीख माँगता है,
तुम्हें अपना सर्वस्व बताता है,
तो तुम्हें आत्मगौरव महसूस होता है।
ठीक वैसे ही, जैसे कोई बच्चा
अपने शिक्षक के अधिकारों से परेशान,
अपने ही खिलौनों के समक्ष
शिक्षक बनकर
तुष्टि करता है अपने अहं की।
क्या यही है - इन सबका मूल?

लेकिन नहीं -
तुम्हें मैं मानवीय मनोविज्ञान पर
शायद नहीं तौल सकती -
तुम उत्तर देने को तो मिलोगे नहीं -
इसलिए चुप हो जाती हूँ आज -
लौट जाती हूँ अपनी दुनिया में -
अपने कर्तव्य-पथ पर -
लेकिन अगर मौत के बाद भी तुम मिलते हो -
तो ज़रूर पूछूँगी तुमसे -

क्या मिला है तुम्हें -
इस पूरे तमाशे से?