हम हर शहर से अजनबी हैं
हम हर शहर से अजनबी हैं।
गुल खिलते, मुरझा जाते हैं
सब खाक़ के हमनशीं हैं।
ख़्वाबों से भी गायब वो
ख़ूबसूरत माहज़बीं हैं।
नहीं हमारा हक़ लेकिन
जन्नत में कमी नहीं है।
Posted by Jaya at 10/14/2013 01:37:00 AM 14 comments
Posted by Jaya at 9/08/2013 01:35:00 AM 5 comments
Labels: hindi, hindi poetry
मन क्यों ना तू खुश होता रे?
जब थीं दिल में उमंगें जागी,
जब सपने नए मिले थे सारे,
कितनी मन्नतें तब माँगी,
कितने देखे टूटते तारे।
अब जब झोली में हैं आए,
क्यों है तू यों थका-थका रे।
रस्ते का क्यों दर्द सताए,
सामने मंज़िल बाँह पसारे।
मन क्यों ना तू खुश होता रे?
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खुशी न जाने क्यों नहीं आती!
मंज़िल क्यों वैसी नहीं लगती,
जैसी थी सपनों में भाती,
जो भी पीछे छोड़ आया हूँ,
अलग ये उससे नहीं ज़रा सी।
प्रश्न है खुद से जिसको ढूँढ़ा
क्या वो कोई मरीचिका थी?
और उसे सब कुछ दे डाला
बची है बस ये राख चिता की।
खुशी न जाने क्यों नहीं आती!
Posted by Jaya at 2/26/2009 12:16:00 PM 8 comments
बड़े दिनों के बाद आज
सूरज से पहले जगी,
बड़े दिनों के बाद सुबह की
ठंढी हवा मुझपर लगी।
बड़े दिनों के बाद पाया
मन पर कोई बोझ नहीं,
बड़े दिनों के बाद उठकर
सुबह नयी-नयी सी लगी।
बड़े दिनों के बाद दिन के
शुरुआत की उमंग जगी,
बड़े दिनों के बाद मन में
पंख से हैं लगे कहीं।
बड़े दिनों के बाद आज
मन में एक कविता उठी,
बड़े दिनों के बाद आज,
कविता काग़ज़ पर लिखी।
Posted by Jaya at 8/22/2008 07:07:00 PM 16 comments
Labels: hindi, hindi poetry, morning, poem, poetry
बच्चों-सा जो कल सीधा था
और कभी किशोर-सा चंचल
आज वयस्कों-सा वह दूर, क्यों
रूप बदलता है पल-पल?
मन घबराए, गुस्सा आए
चोट लगे, आँसू आ जाएँ
हर कुछ को ही सहना होगा।
Posted by Jaya at 1/13/2008 09:53:00 AM 10 comments
गाए हैं बहुत ही मैंने, सुख और दुःख के गीत
आओ सुनाऊँ आज खालीपन का भी संगीत।
महसूस की है तुमने रागिनी जो बजती है
जब बाहों में होकर भी मिलता नहीं मीत?
जब सैलाब-सा होता है मन के अंदर कोई पर
मिलती नहीं दो बूँद जिससे धरती जाए रीत।
Posted by Jaya at 1/10/2008 11:51:00 AM 5 comments
हो रही है बेचैनी सी, कुछ तो लिखना है मुझे,
ना हो बात जो ख़ुद पता पर, वो कोई कैसे कहे?
इंतज़ार की आदत जिसको, बरसों से है हो गई
मिलन के सपने बुनने की समझ उसे कैसे मिले?
उजड़े महलों पर ही नाचना, जिसने हरदम सीखा हो
रंगशाला की चमक भला, कैसे उसकी आँख सहे?
Posted by Jaya at 1/03/2008 03:24:00 AM 4 comments
सवाल कईयों ने पूछे हैं,
मैं पहली नहीं हूँ।
सवाल सभी पूछते हैं,
मैं अकेली नहीं हूँ।
पर बहुत से लोग
सवाल पूछ-पूछ कर थक गए।
जवाब मिलने की तो छोड़ो
कोई अलग रास्ता तक न सूझा।
उसी लीक पर चलते गए।
और मैं?
क्या कम-से-कम
अलग रास्ता अपना पाऊँगी?
या यों ही अपने सारे सवाल लिए
एक दिन ख़ुद भी चली जाऊँगी।
Posted by Jaya at 7/25/2007 02:51:00 PM 7 comments
है नहीं कुछ फिर क्यों भारी मन है,
दिन के अंत में कैसा अधूरापन है?
बोझिल आँखें, चूर बदन हैं, थके कदम से
कहाँ रास्ता मंज़िल का भला पाता बन है?
अधूरेपन की कविताएँ भी अधूरी ही रह जाती हैं,
पूरा कर पाए इन्हें, कहाँ कोई वो जन है?
Posted by Jaya at 5/12/2007 09:45:00 AM 3 comments
कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?
धुंधला ये स्वप्न मुझे कौन है दिखा रहा?
बदली कई बार मग़र राह अभी मिली नहीं
चलने को जिसपर मेरा मन कुलबुला रहा।
बैठी थी यों ही, पर वैसे ना रह सकी
सफ़र कोई और है जो मुझे बुला रहा।
यहाँ-वहाँ, कहीं-कोई, झकझोर सा मुझे गया
कोई है सवाल जो पल-पल मुझे सता रहा।
Posted by Jaya at 12/29/2006 08:16:00 PM 9 comments