Monday, March 28, 2005

ज़िन्दग़ी की खुली किताब

सोचती हूँ ख़त्म कर दूँ तुझे
ऐ ज़िन्दग़ी की खुली किताब,
आज ही, जब सब ख़ुशनुमा है
और पूरा निकला है माहताब।

दो पल मुसकरा दे कोई
तेरी एक झलक पाकर,
काम तेरा हो जाएगा
पूरा दुनिया में आकर।

कल अँधेरे हो सकते हैं
ज़िन्दग़ी में, और उसका असर
पड़ेगा तुझपर भी, अगर
टूटा कहीं वक़्त का कहर।

क्यों आँसू से धोऊँ तुझको,
क्यों छीनूँ तेरी मुसकान?
क्यों ना बंद कर दूँ तुझको
अंत आज ही तेरा मान?

किसी ने फिर उठाया तुझे
अगर कभी बरसों के बाद,
हँस देना मुसकान में उसकी
कर दम भर तू मुझको याद।

Friday, March 04, 2005

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

बड़ी-बड़ी आँखों ने जब
उनसे भी बड़ी कल्पना की थी।
छोटी-छोटी बाहें भी जब
गगन को सारे अपनाती थीं।

खो गए हैं कहीं उनके साथ
कुछ विश्वास कभी जो थे अपने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

निष्कलुष आँखों ने देखा था,
जो था उनसे संतोष न था।
पर बदला जाएगा सबकुछ
कम यों इसका जोश न था।

आज की बलिष्ठ भुजाओं में
चलना है जोश वो फिर भरने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

क्या कहा बचपना था वो सब?
भूल जाऊँ मैं अब वो बात?
बचपना था तो डोर दुनिया की
दे दो आज बच्चों के हाथ।

थोड़ा बचपन मैं ले आऊँ
आज फिर से अपने मन में।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।


Thursday, March 03, 2005

ऐसा तो नहीं हो सकता

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि आँसू, खून और विध्वंस मिलकर
कभी नहीं देते भयानक सपने तुम्हें
और तांडव नहीं करते हों दिलपर।

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि कभी सिहरता न हो तुम्हारा बदन।
कभी उलटी न आती हो घिन से,
कभी चीखता नहीं हो अपना ही मन!

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि कभी तुम्हें ऐसा लगा नहीं
कि तुमने बहुत ग़लत किया है
और इंसान तुम्हारे अंदर जगा नहीं।

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि तुमने कभी जाना ही नहीं
कि दर्द क्या होता है इंसानों का
और ग़लती को तुमने माना नहीं।

फिर कैसे तुम सत्ता के मद में
रचाते रहे हो खेल ये भयंकर?
कैसे आते रहे दुनिया में
गजनी, हिटलर या बुश बनकर?