ये तो मेरा ही दिल था
किसी ने मुझे एक किस्सा सुनाया,
"चाँद से तो मैं लौट आया,
सारा विश्व सो घूम चुका मैं
पर उसे मैंने कहीं न पाया।"
"कई बार राहों में गुज़रते हुए
अक्सर गलियों में भटकते हुए
उसकी दर्द भरी चीख सुनकर
रुक गए पैर कुछ ठिठकते हुए।"
"ढूँढ़ा उसे मैंने चारों ओर
रात भर भी और हो गई भोर।
आवाज़ें आती रहीं मगर
मिला ना उसका ओर या छोर।"
"सोचा शायद मिट्टी में वो दबी हुई हो,
पददलित हो शायद वहीं पर वो पड़ी हुई हो।
खोदने की कोशिश की मैंने मिट्टी
लेकिन फिर भी मुझे मिली नहीं वो।"
"मैं चलता ही गया इस आशा में
कि किरण कोआ मिलेगी ही निराशा में।
रात तो कटेगी ही अभी या कभी -
साहित्य की ख़ूबसूरत भाषा में।"
"चारों ओर उसकी चीखें ही चीखें
उसे ढूँढ़ना कोई कैसे सीखे?
खीझ कर भी मैं थक गया था,
रुक गया वहीं मुठ्ठियाँ भींचे।"
"तभी कहीं से आवाज़ आई -
'सही जगह तुम ढूँढ़ नहीं पाए भाई।
मैं तो तुम्हारे ही भीतर छिपी हूँ,
भरना चाहती हूँ दिलों की खाई'।"
"अविश्वास, खीझ और लेकर संदेह,
पाना चाहते हो मुझको सदेह?
बताओ मैं कैसे आऊँ तुम तक
जब तुम दे नहीं सकते मुझे नेह।"
"खो चुके हो तुम अपनी पहचान
इसलिए नहीं पा सके मेरा निशान
जगाओ एक बार मेरी आत्मा को
पाओगे मुझे अपने मित्र समान।"
कहकर इतना वह हो गया चुप,
मैं भी चुप थी, वह भी मूक।
"आख़िर यह किस्सा किसका था?"
जवाब मिला - "मानवता।"
ध्यान से देखा मैंने,
"वह कथाकार कौन था?"
ये तो मेरा ही दिल था।