Saturday, January 20, 2001

मैं मानती हूँ

मैं जानती हूँ,
कि साधारण पत्थर होकर
पहाड़ से टक्कर ली है।

मैं जानती हूँ,
कि आज मेरी चोट
मुझपर उलटी पड़ी है।

मैं जानती हूँ,
कि मुश्किल है सागर के
पानी को मीठा करना।

मैं जानती हूँ,
कि मैं हूँ एक साधारण
छोटा तालाब या झरना।

मैं जानती हूँ,
कि छोटा सा है मेरा जीवन
पूरा ना हो सकेगा मन।

पर

मैं मानती हूँ,
औऱ भी बिखरे पत्थर हैं,
मिलकर पहाड़ बना देंगे।

मैं मानती हूँ,
काँटे की टक्कर होगी,
ज़मीन समतल बना देंगे।

मैं मानती हूँ,
सागर झुक जाएगा एक दिन
मेरे अस्तित्व के सामने।

मैं मानती हूँ,
क्योंकि आज मैं हूँ
कल सब आएँगे हक़ माँगने।

मैं मानती हूँ,
कि सफल हो जाऊँगी मैं
अगर हो गया यह सब
मेरे जाने के बाद भी -
क्योंकि हर फल और फूल में
बीज के अंश और प्राण होते हैं।

इसलिए मैं मानती हूँ,
कि मुझे करना चाहिए-
कि मुझे बढ़ना चाहिए।


1 comment:

Anonymous said...
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