Friday, April 23, 1999

ख़ुद को ही जड़ बनाती

अगर वापस बुला सकती मैं
तो अपने बचपन को बुलाती,
अगर टोक कर रोक सकती मैं
तो भागते हुए समय को रोकती।

अगर ला सकती कुछ धरती पर
तो असीम-अनन्त आकाश को लाती,
अगर कुछ पा सकती मैं
तो आकाश के तारों को पाती।

अगर उजाला कर सकती मैं
तो सूरज को ही उतारती,
अगर शीतलता पा सकती मैं
तो चाँद की चाँदनी बटोरती।

लेकिन मैं जानती हूँ
कि मैं एक इंसान हूँ।
मेरी अक्षमता ही मेरा जीवन है,
पर खोज में बढ़ते जाना ही मेरा काम है।

ना जाने कब से चल रही हूँ,
ना जाने कब तक चलती रहूँगी।
नहीं जानती,
क्योंकि अगर जड़ किसी को बना पाती मैं
तो ख़ुद को ही जड़ बनाती।