Thursday, December 24, 1998

मैं समय हूँ

मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त,
तुम्हारी क्षमताओं से परे।

मैं ही हूँ वो
जिसने इस ब्रह्मांड को
बनाया है।
और स्वयं आगे बढ़ते हुए
इसे इस रूप में लाया है।

तुम नहीं जानते
कि 'बिग-बैंग' हुआ था या नहीं,
मैं जानता हूँ।
तुम नहीं जानते
कि कैसे बना था सूर्य,
मैं जानता हूँ।
तुम बस अनुमान लगा सकते हो
कि कैसे बनी, पिघली व
फिर से बनी थी पृथ्वी,
मैंने सबकुछ देखा है।

मैंने देखा है
मानवों का अवतरण इस धरती पर।
मैंने महसूस किया है
उन आदिमानवों के जीवन को
जिन्होंने सूर्य की चमक में
मेरा स्वागत किया था।
रात्रि का काला आवरण पहन
मैंने उन्हें डराया भी था।

क्यों मैं इतना क्रूर था?

क्योंकि यही मेरा कर्तव्य था।

क्योंकि इसी ने प्रेरित किया था
कारण और निदान की खोज को।
क्योंकि इसी ने उत्प्रेरित किया था
सभ्यता के विकास को।

हाँ, मैं वही समय हूँ,
जिसे उन आदिमानवों ने
रात और दिन से ज़्यादा टुकड़ों में
विभाजित नहीं किया था।
और जिसकी मार और सहारे से
तुम विकसित होते गये।
और आज इस अवस्था में पहुँच गए हो
कि मेरे छोटे-सो-छोटे अंश को
माप लेना चाहते हो।
तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ गई हैं
कि तुम मुझे, समय को अपने वश में कर लेना चाहते हो।

मग़र याद रखो,
कि तुम मेरी पैदाइश हो,
मेरे अधीन हो।
मैं तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ नहीं कुचल रहा,
मैं तुम्हें पूरा मौका दूँगा
कि तुम मेरी शिला पर
कुछ ऐसे लेख लिख जाओ
जो कोई न मिटा पाए।
वैसे ही जैसे
अशोक, चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने लिखे हैं।
वैसे ही जैसे
लक्ष्मीबाई, चेनम्मा, जॉन-ऑफ़-आर्क ने लिखे हैं।
वैसे ही जैसे
बहुत से औरों ने लिखे हैं।

यह तुमपर निर्भर करता है
कि तुम इन लिखने वालों की
श्रेणी में आना चाहते हो
या खो जाना चाहते हो
उन लाखों की भीड़ में
जिनका आज कोई
नाम तक नहीं जानता।
यह सब
तुमपर निर्भर करता है।
बढ़ो जहाँ तक बढ़ सकते हो।
मग़र याद रखो
कि तुम्हारी हर क्षमता से ऊपर
मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त।
मैंने बहुतों को अपना ग्रास बनाया है।
तुम भी उनमें से एक होओगे।
मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त,
तुम्हारी क्षमताओं से परे।

Monday, December 21, 1998

विरोधाभास

क्यों होता है इतना विरोधाभास
मेरी ही सोच में कल और आज?
तुम पूछते हो मुझसे अक्सर,
गर्वित होते हो प्रश्न अनुत्तरित पूछकर।

तुम मानो या ना मानो
मनवा तो नहीं सकती मैं।
पर यह सच है कि मैं आदमी हूँ, पत्थर नहीं,
इसलिए अक्सर बदलती हूँ मैं।

ज्ञानेंद्रियाँ अभी जीवित हैं मेरी,
नित नए-नए अनुभव कराती हैं,
मेरी समझ और मानसिकता में
इस तरह बदलाव लाती हैं।

नई चीज़ें गर अच्छी लगें
तो स्वीकारना मेरी आदत है,
शाश्वत सत्य कुछ है नहीं,
आज के सत्य की पूजा मेरी इबादत है।

जिस दिन सोच का यह लचीलापन
इंसानी दिमाग़ से ख़त्म हो जाएगा,
उस दिन के बाद न तो नए सिद्धांत जनमेंगे
ना ही कोई नया आविष्कार हो पाएगा।

उस दिन मानव सभ्यता के इंतकाल की
खुली और घोषित शुरुआत हो जाएगी।
विकास और उत्थान से जुड़ी उसकी क़िस्मत
उसी दिन से बर्बाद हो जाएगी।