Tuesday, October 20, 1998

बचपन कैसे बीत जाता है

जब दीवाली के पटाखों में
शोर सुनाई देता है,
उनसे उठने वाले धुएँ में
प्रदूषण नज़र आता है,
जब जलती फुलझड़ियों में
जलता पैसा दिखने लगता है,
जब थोड़ी खुशियाँ मनाने में
समय नष्ट होने लगता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब आँखों की भोली उत्सुकता
संदेह में बदल जाती है,
जब छोटी-छोटी जिज्ञासाएँ
प्रश्नों के सागर बन जाती हैं,
जब घर-आँगन के बाहर भी
एक दुनिया नज़र आती है,
जब सामाजिकता और परिस्थितियाँ
ज़िम्मेदारियाँ नई लाती हैं,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब बमों व बंदूकों के स्वर
साधारण पटाखे नज़र आते हैं,
जब चंदामामा प्यारे न रहकर
पत्थर को ढेर बन जाते हैं,
जब सूरज नहीं चलता आकाश में,
पृथ्वी घूमने लगती है,
जब स्थिरता और गति जीवन की
सापेक्षिक लगने लगती है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब आसमान सपना हो जाता,
धरती तक दुर्लभ लगती है,
मेहनत का मतलब समझ में आता है,
कठिनाइयाँ जीवन का सच बनने लगती हैं,
जब माँ का आँचल, पिता का हाथ भी
सुरक्षा में असमर्थ हो जाता है,
जब जीवन रूपी यह संघर्ष
मानसिक परिपक्वता लाता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

Wednesday, October 07, 1998

सबसे बड़ा अजूबा

सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

आदमी का जन्म लेना
जीवन जीना, हँसना-रोना,
मिट्टी में मिल जाना एक दिन
खेल खत्म हो जाना उस दिन
आश्चर्य इससे बड़ा कोई है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

आदमी ही है वो जिसको
रोटी तक नसीब न होती,
आदमी ही वो भी बना है
किस्मत जिसके पाँवों की जूती।
विरोधाभास ऐसा मिला कहीं है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

दो आँखें हैं, दो हाथ हैं,
दो कान और एक ही नाक है,
खून का रंग भी लाल ही तो है,
पर मिलती नहीं दोनों की जात है।
तर्क इसके पीछे कोई है?
"सत्य" से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

अपनों को ही काट रहे हैं,
बाँट रहे हैं, तोड़ रहे हैं,
बड़े घर में शायद दम घुट रहा,
इसलिए टुकड़ों में तोड़ रहे हैं।
स्थिति अजीब ऐसी कहीं है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।