Saturday, March 28, 1998

जी कहीं भर आया है

लाख नकारो सम्बन्धों को,
लाख सँभालो भावनाओं को,
पर भूलना आसान नहीं होता
उन दुआओं व बददुआओं को।

जो जुड़ी होती हैं कहीं से,
किसी से जो सम्बद्ध होती हैं,
कितनी ही कही-सुनी कथाओं से
जो कहीं-न-कहीं निबद्ध होती हैं।

जिन्होंने मुझे बिगाड़ा है, बनाया है,
मेरे संसार को उजाड़ा है, सजाया है,
वो फिर दुबारा नहीं मिलेंगी कभी
सोच कर जी तो भर ही आया है।

अच्छे भी हैं, बुरे भी हैं,
पर मेरे जीवन का हिस्सा तो हैं,
रुलाया हो मुझे या हँसाया हो,
ज़िन्दग़ी से जुड़ा एक किस्सा तो हैं।

अतीत हमेशा होता है सुहाना
तो भविष्य में ये चीज़ें अच्छी लगेंगी ही,
देखने को अपना यह चमन
निग़ाहें कभी तो तरसेंगी ही।

क्योंकि जो भी मिला है
वह स्वयं में अद्भुत है।
जब कभी भी इनकी ज़रूरत पड़ेगी
तब तो ये यादें ही सहारा बनेंगी।

आभारी मैं उन लम्हों के लिए तो हूँ ही
जिन्होंने छोटी-छोटी खुशियाँ दी हैं।
वे बातें भी दिलों के छूती हैं,
जिनमें मैंने हँसी बाँटी है।

आँसू भी बहाए हैं मैंने
जो आगे फिर याद आएँगे,
अच्छे-बुरे सब मिलकर
राह के पाथेय बन जाएँगे।

इतना लंबा अरसा जिसने
बहुत कुछ मुझे सिखाया है,
छोड़ने में जुड़ी दुनिया उससे
सचमुच जी कहीं भर आया है।


Friday, March 20, 1998

ऐ तारों!

ऐ तारों! देखकर तुम्हें आकाश में
मुझे कुछ-कुछ अहसास होता है,
कुछ है, इनसे अलग, अलग इस जहाँ से
ऐसा कुछ-कुछ विश्वास होता है।

कौन हो तुम?
संतुष्ट कर नहीं पाया मुझे विज्ञान।
सोचती हूँ जब तुम्हारे अस्तित्व की बात,
लगता है दुनिया भी है अज्ञान।

कौन हो तुम?
क्या आदिम मानव की आविष्कृत
प्रकाश की पहली ज्योति?
या किसी भूखे द्वारा ढूँढ़ी गई
पहली-पहली रोटी?

या मानव के मुँह से निकली
पहली वो बोली?
जिसने भरी पहली बार
सभ्यता की झोली?

या किसी के गले से निकला
पहला-पहला गीत?
जो तुम्हारी ही तरह बन गया
सदा के लिए मानव का मीत?

या उस अव्यक्त सत्ता का
कोई मूर्त प्रतीक
जिसके आगे कोई भी
पा न सका जीत?

या कुछ और ही
मेरी कल्पनाओं से भी परे
जिसको नाम देने के लिए भटकती हूँ
आशाओं की झोली भरे?

या कुछ और जो बाहर है
इस कलम की भी पहुँच से.
वो जो मैं पूछ नहीं पा रही
यहाँ तक कि ख़ुद से?