Friday, August 08, 1997

झुक जाती हूँ मैं

सुना है हर प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना विज्ञान है,
आज के युग में संभवतः सबसे बड़ ज्ञान है,

लेकिन अपने प्रश्नों के जवाब देने में
इसे जब समर्थ पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

देखी है मैंने शामों में वो बादलों की कालिमा,
चमकती है कैसी उसपर सूर्य की लालिमा,

लेकिन इनकी उपमा देने के लिए
अपनी पहुँच की कोई चीज़ नहीं पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

जब जानती हूँ कि सामने कोई मुझसे कमज़ोर है,
और मेरे आगे चल नहीं सकता उसका ज़ोर है,

फिर भी जब उसे ख़ुद से ही
जीतता हुआ पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

जब संसार मान लेता है मुझे विजयी,
जीत पाती जाती हूँ रोज़ नई-नई,

लेकिन ख़ुद से ख़ुद के ही द्वंद्व में
जब ख़ुद को हारती पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

दुनिया के संग मैं भी पहुँच सकती हूँ चाँद पर,
छूने की कोशिश कर सकती हूँ सूर्य को अपनी आन पर,

मगर एक और सूर्य या चन्द्रमा बनाने में
जब असफल हो जाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

उम्र की निशानी चेहरे पर से हटा सकती है आज की दुनिया,
इतनी सक्षम है वो कि चेहरे को कर सके नया,

लेकिन जन्म, जरा और मृत्यु पर
जब उसका कोई वश नहीं पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

सूर्य है आग, ये चन्द्रमा है पत्थर,
बादल और बिजली से भी नहीं कोई डर,

लेकिन जलते सूर्य, चमकते चन्द्रमा और घूमती पृथ्वी
का शक्ति-स्रोत पता नहीं लगा पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

कुछ स्विचों से रोबोट चला सकती हूँ मैं,
एटम बमों से दुनिया को हिला सकती हूँ मैं।

लेकिन एक दुनिया क्या, एक इन्सान भी
बनाने में जब असमर्थ ख़ुद को पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

बड़ी-बड़ी समस्याएँ सुलझा सकती हूँ मैं,
अपनी बुद्धि से दुनिया को उलझा सकती हूँ मैं।

लेकिन जब अपने भीतर के ही प्रश्नों में
उलझती चली जाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।