Friday, April 18, 1997

मेरी ज़रूरत

ज़िन्दग़ी के इस तमाशे में
जब तक ख़ुद भी कोई तमाशा बनकर
चलती हूँ, तब तक दोस्त की कमी
महसूस नहीं होती इस पथ पर।

लेकिन कभी जब बनकर मूकदर्शक
नज़र फेरती हूँ इन तमाशों पर,
मेरी अनुपस्थिति का कोई प्रभाव
नज़र नहीं आता है लोगों पर।

टीस उठती है दिल में
कि मेरी कोई नहीं पहचान।
मैं किसी की ज़रूरत नहीं हूँ
हर कोई मानो हो मुझसे अनजान।

इच्छा होती है उस वक़्त कि काश!
मैं भी होती किसी की ज़िन्दग़ी का हिस्सा,
किसी की ज़िन्दग़ी के हर पृष्ठ पर होता
उसका मुझसे जुड़ा कोई किस्सा।

हाँ, एक दोस्त की कामना है मुझे
जिसे भी हो मेरी ज़रूरत।
मेरी अनुपस्थिति पर अभाव का अहसास
हो उसकी ज़िन्दग़ी की एक हक़ीकत।

Thursday, April 10, 1997

मेरी पहचान, मेरी कविताएँ

जब ज़िन्दग़ी बेगानी लगती है
तो मुड़कर देखती हूँ अपनी कविताएँ।
मैं क्या थी क्या हो गई हूँ,
शायद कोई अता-पता मिल जाए।

बता देती हैं ये कि मैंने
क्या खोया है, क्या पाया है,
क्या भूली हूँ, क्या सीखा है,
क्या सोचकर क्या गुनगुनाया है।

मिल जाता है इनमें मुझे कि
मैंने क्या सोचा था, क्या देखा था कभी।
बदलाव मुझमें भी नज़र आ जाता है
सोचकर कि क्या नज़रिया है अभी।

मैं क्या सोचती हूँ, क्या देखती हूँ,
क्या मानती हूँ, क्या जानती हूँ,
क्या चाहती हूँ, क्या कहती हूँ,
क्या खोजती हूँ, क्या मानती हूँ?

अब तक के इस सफ़र में मैंने
क्या खोया है, क्या पाया है?
सम्पूर्ण रूप में ऐसा कहो -
मेरा पूरा परिचय क्या है?

ढूँढ़ना चाहते हो तो ढूँढ़ो
शायद इन्हीं में मिल जाए,
क्योंकि मैं तो मेरी कविताएँ ही हूँ,
और मेरी पहचान, मेरी कविताएँ।